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द्वितीयः सर्ग: यनेन ऊर्ध्वगमनेन दुर्विभावनो दुप्करावधारणो दुर्लक्ष इत्यर्थः । पिततीकृती विस्तारीकृती निश्चलो छदो पक्षौ यस्य सः, तथा क्षणमालोककानां द्रष्टणां दत्तकौतुकः सन् ययौ । स्वभावोवितः ॥ ६८ ॥
अन्वयः-सः क्षणं धूतपक्षतिः क्षणम् ऊर्ध्वायनदुर्विमावनः क्षणं वितती. कृतनिश्चलच्छदः आलोककदत्तकौतुकः सन् ययो ।
हिन्दी--वह ( हंस ) क्षण भर पक्षमलों को कंपित करता, क्षण भर ऊँचे उड़ने के कारण दुर्लक्ष्य होता, क्षणभर निश्चल पंखों को फैलाता अतएव दर्शकों में कौतुक उत्पन्न करता उड़ा ।।
टिप्पणी- इस प्रकार विविध शैलियों में उडना पक्षि-स्वभाव है, फलत. मल्लिनाथ के अनुसार स्वभावोक्ति अलंकार, 'साहित्यविद्याधरी' के अनुसार दीपक. जाति का संकर । यहाँ से पांच श्लोकों ( ६८-७२) में तीव्र गति से उड़ते हंस का वर्णन है ।। ६८॥
तनुदीधितिधारया रयाद्गतया लोकविलोकनामसौ ।
छदहेम कषन्निवालसत् कषपाषाणनिभे नभस्तले ।। ६९ ॥ जीवातु--तन्विति । असौ हंसो रयाद्धेतोः उत्पन्नयेति शेषः । लोकस्य आलोकिजनस्य परीक्षकजनस्य च विलोकनां दर्शनं गतया कौतुकाद्वर्णपरीक्षां च विलोक्यमानयेत्यर्थः । तनोः शरीरस्य तन्वा सूक्ष्मया च दीधितिधारया रश्मिरेखया निमित्तेन कषपाषाणनिभे निकपोपलसन्निभे नभस्तले छदहेम निजपक्षसुवणं कषन् घर्षन्निवालसत् अशोभतेत्युत्प्रेक्षा ॥ ६९ ।। ___ अन्वयः-असौ रयात् लोकविलोकनां गतया तनुदीधितिधारया कषपाषाणनिभे नभस्तले छदहेम कषन् इव अलसत् ।
हिन्दी-वह ( हंस ) वेग के कारण जन-गोचरता को प्राप्त ( दीखती ) शरीर की किरणों भी धार से (अथवा तीव्र गमन वेग से कृश दीखती दीप्ति धारा से ) कसौटी के पत्थर के समान आकश-तल में पंखों का स्वर्ण कसता जैसा सुशोभित हुआ।
टिप्पणी--स्वर्णहंस के शरीर की चमक जब आकाश में रेखा-सी खिंचती