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( २४ ) कर्मभोग भूमि भारत में ही है-'स्वर्ग सतां शर्म परं न धर्मा भवन्ति भूमाविह तच्च ते च ।' (नै० ६९८ )। इसके अतिरिक्त साधु-धामिक को भी स्वर्ग से अध:पतित होना ही पड़ता है, परन्तु धर्मी भारत से तो ऊर्ध्व-गति पा स्वर्ग जाता है-'साधोरपि स्वः खलु गामिताधोगामी स तु स्वर्गमितः प्रयाणे।' ( तदेव ९९ )।
श्रीहर्ष ने भारत की वाणी संस्कृत को 'दैवी वाक्' ( नै० १०५६ ) 'दिव्यवाक्' ( तदेव ५८ ) कहा है, पृथ्वी पर विना क्लेश जिसका प्रादुर्भाव वाल्मीकि के कण्ठपथ से हुआ और जो स्वर्ग में कवि शुक्राचार्य के वचनमालागुम्फन का आधार बनती है। ___ थीहर्ष राजकवि थे, जिनका आदर गुण-स्नेहल राजा 'सचातुर्वर्ण्य' करता था और लक्ष-लक्षसंख्यक हेम-सुवर्ण उनपर न्यौछावर करता था। विलासऐश्वर्य उनके चरणों पर लोटता था, पर वे इन्द्रियाधीन नहीं हुए, 'स्वपरिचय' में सर्वत्र उन्होंने अपने को 'जितेन्द्रियचय' कहा हैं। उनका काव्य-नायक नल 'दारसार', स्त्रियों में रत्नभूता भीमनन्दिनी को पाकर भी, उस 'तृतीय. पुरुषार्थवारिधिपारलम्भनतरी' के साथ 'दिवानिश-मोगमाक्' रहकर भी 'ज्ञानघौतमनाः' बना रहता, अर्थात् विषयसुख भी उसकी आत्मवित्ता को प्रभावित न कर सके । ( नै० १८०२ )।
श्रीहर्ष पण्डित तो अगाध थे ही, साहित्य, न्याय, तकं आदि विषयों के तो समान ज्ञाता थे, इसके साथ ही वेद-वेदाम, षड्दर्शन, संगीत, गणित आयुर्वेद, धनुर्वेद, सामुद्रिकविद्या, ज्योतिष, पुराणादि, नीतिशास्त्र के भी उद्भट ज्ञाता थे। 'नैषधीयचरित' में उनके शास्त्रवेत्ता होने के यत्र-तत्र प्रमाण मिलते हैं। परन्तु अपने दर्प पर आघात उन्हें स्वीकार्य नहीं था। सबसे बड़ा अभिमान था उन्हें अपने कृतित्व पर । उनका कृतित्व सुधी-जनों द्वारा मान्य होना चाहिए, अल्पबुद्धि कुमारों की उन्हें चिन्ता नहीं-'मदुक्तिश्चेदन्तर्मदयति सुधीभूय सुधियः किमस्या नाम स्यादरसपुरुषानादरभरेः । (ले० २२।१५१ )। उनके 'काव्यरसोमिप्रवाह' में वही सज्जन 'मज्जनसुखव्यासज्जन' ( स्नानसुख ) पा सकता है, जिसने श्रद्धापूर्वक गुरु की अराधना को है, 'प्राशंमन्य' खल इसमें खेल करने का दुष्प्रयत्न न करे। ( तदेव १५.)।