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नैषधमहाकाव्यम् त्मना परिणतः सन् प्रभाझरे लावण्यप्रवाहे चक्रभ्रमं चकवाकभ्रान्ति कुलालदण्डभ्रमणं चातनोति, 'चको गणे चक्रवाके चक्रं सैन्यरथाङ्गयोः । ग्रामजाले कुलालस्य भाण्डे राष्ट्रास्त्रयोरपि' इत्युभयत्रापि विश्वः । अत्र 'समवायिकारणगुणा रूपादयः कार्ये संक्रामन्ति न निमित्तगुणा' इति तार्किकाणां समये स्थिते गुण इति चक्रभ्रम इति चोभयत्रापि वाच्यप्रतीयमानयोरभेदाध्यवसाय एव 'स तदुच्चकुचौ भवनि'ति कुचकलसयोरभेदातिशयोक्त्युत्थापितझरचक्रभ्रमात्मकक्रियानिमित्ता कुचात्मनि कलसे कार्ये चकभ्रमकारितालक्षणनिमित्तकारणगुणसंक्रमणलक्षणेनोत्प्रेक्षेति सक्षेपः । ताकिकसमये विरोधात विरोधाभासोऽलङ्कार इति कश्चिदुक्तम् तदेतदत्यन्ताश्रुतचरमलङ्कारपारदृश्वानः शृण्वन्तु ।। ३२ ॥
अन्वयः-निजहेतुदण्डजः चक्रभ्रमकारितागुणः कलसे किमु, यत् सः तदु. च्चकुचौ भवन् प्रभाकरचक्रभ्रमम् आतनोति । __ हिन्दी-कलश में जो चक्रभ्रमकारी ( चाक का भ्रम उपजाने वाला ) भाव-रूप गुण दीखता है, वह क्या निमित्त कारण दंड से संजात है, जिससे वह कलश उस ( दमयन्ती ) के उन्नत दोनों कुच होता हुआ दीप्ति की झड़ी से ( कुम्भकार के ) चक्र का भ्रम ( दर्शकों की दृष्टि में ) उत्पन्न कर रहा है ? अथवा लोक समूह में मदजनित मोह उत्पन्न कर रहा है अथवा वह कलश कुचयुग्म होकर प्रभा-प्रवाह में भ्रमते चकवे का भ्रम उत्पन्न कर रहा है।
टिप्पणी-दमयन्ती का चक्रवाक और कलश के समान कुचयुगल अत्युन्नत है, जो देखता है, सौन्दर्य की चकाचौंध में दृष्टि-भ्रांत हो जाता है, वैसे ही जैसे तीव्र सूर्यप्रकाश को देखकर सब विमुग्ध हो जाते हैं, जैसे उन पर मद चढ़ गया हो। भ्रम का अर्थ घूमना-चक्कर खाना भी है। इसको लेकर कवि ने 'न्यायग्रहग्रन्थिल तर्क' में अपना ज्ञान-प्रदर्शन किया है। न्यायशास्त्र में तीन प्रकार के कारण माने जाते हैं-(१) समवायि, (२) असमवायि और (३) निमित्त । जिससे समवेत कार्य उत्पन्न होता है, वह समवायि कारण है, जैसे मृत्पिंड घट का। यह द्रव्य ही होता है। इससे भिन्न असमवायि कारण है। यह गुण या कर्म होता है, जैसे मृत्कपाल-द्वय-संयोग घट का। निमित्त कारण