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प्रथमः सर्गः
'निगालजो देवमणिरि'ति लक्षणात् । दिव्यमाणिक्यं च गम्यते, तस्मादुत्थितरिव स्थितरित्युप्रेक्षा। निशीथिनीनाथमहःसहोदरश्चन्द्रांशुसदृशैरित्युपमा । केसरकेशा एव रश्यय इति रूपकं तैविराजितम् ॥ ५८॥
अन्वयः-अथ निशीथिनीनाथमहःसहोदरः निगालगात् देवमणेः आन्तरेण अवटुगामिना अध्वना उत्थितः इव केसरकेशरश्मिभिः विराजितम् (तं हयम् आरुरोह-इति ( ६४ ) चतुषष्टितमेन श्लोकेन अन्वयः )।
हिन्दी-- तत्पश्चात् निशानाथ ( चंद्र ) को किरणों की सहजात ( चन्द्रकिरणो-सी शुभ्र, उज्ज्वल ), गल प्रदेश में स्थित देवमणि (घड़ी के कांटे की भांति दाहिनी ओर घमी-दक्षिणावर्त,-शुभ, घोड़ों की गरदन पर होने वाली बालों की भंवरी) से अवटु अर्थात् गर्दन के पीछले माग तक के आंतर अर्थात् मध्य से जानेवाले मार्ग से उद्भूत जैसी, कंधे पर फैले बालों की किरणों से सुशोभित घोड़े पर नल आरूढ़ हो गये।
टिप्पणी-चौसठवें श्लोक तक अश्व का वर्णन है, जिसमें 'घोड़े पर आरूढ़ हो गये-इस वाक्य तक अन्वय होता है। शुभ्रता के कारण केसररश्मियों की तुलना चंद्रकिरणों से की गयी है। 'देवमणि' चंद्र को भी कहा जाता है, इस प्रकार 'देवमणेः उत्थितम्' का सादृश्य भी बैठ जाता है। 'प्रकाशकारने 'विराजितं' का अर्थ किया है 'पक्षिराज गरुड़ के तुल्य वेगवान्'-'वीनां पक्षिणां राजा विराजो गरुडः तद्वदाचरितम् ।' विद्याधर के अनुसार इस पद्य में अनुप्रास-उत्प्रेक्षा-रूपक का संकर है। 'चंद्रकला' कर्ता ने उपमा-उत्प्रेक्षारूपक की संसृष्टि का निर्देश किया है। मल्लिनाथ ने भी उत्प्रेक्षा-उपमा रूपक अलङ्कार माने हैं ।।५८॥
अजस्रभूमीतटकुट्टनोद्गतैरुपास्यमानं चरणेषु रेणुभिः । रयप्रकर्षाध्ययनार्थमागतैर्जनस्य चेताभिरिवाणिमाकितैः ॥ ५९ ॥
जीवातु--अजनेति । अजस्रेण भूमीतटकुट्टेन उद्गतै रेणुभिः रयप्रकर्पस्य वेगातिशयस्याध्ययनार्थमभ्यासायागतैरणिमाङ्कितरणुस्वपरिमाणविशिष्टजनस्य लोकस्य चेतोभिरिवेत्युत्प्रेक्षा । चरणेषु पादेषु उपास्यमानं सेव्यमानम् । 'अणुपरिमाणं मन' इति ताकिंकाः ॥ ५९॥