________________
प्रथमः सर्गः
होती है-जिसका अर्थ है मोह और उच्छाय अर्थात् उभरना। भरत ( नाट्यशास्त्र २८।३२ ) के अनुसार ‘क्रमयुक्त सप्तस्वर' मूच्छंना है । तुम्बुरु 'श्रुति ( नाद के श्रुतिगोचर होना ) के मार्दव' को मूच्छर्ना मानते हैं। श्रुति का मार्दव - उतरी हुई अवस्था कोहल (भरतकोष ) के अनुसार अमृतसरोवर में गायक और श्रोताओं के मन का मज्जन मूर्च्छना है। ( यही अर्थ यहाँ अभिप्रेत है । ) नान्यदेव ( मरतकोष ) का कथन है कि जिस स्वर से उच्छाय आरोह होता है, उसी स्वर से जव समाप्ति भी होती है, तव मूर्च्छना होती है। जैसे षड्ज ग्राम प्रधम मूर्च्छना-'सा रे ग म प ध नि सा ।' सामान्यतया किन्हीं सात स्वरों का उतार-चढ़ाव मूच्र्छना है। 'प्रकाश'-कार ने मूर्च्छनाओं की संख्या इक्कीस बतायी है । 'नाट्यशास्त्र' (२८१३१ ) में स्वर-क्रमयुक्त सम्पूर्ण पाडवी, औडुवीकृता और स्वर-साधारणीकृता मूर्च्छनाएँ चौदह बतायी गयी हैं । 'आलापित' कहते हैं राग के प्रकटीकरण को ।
'अयेन' का खण्ड ( अये+न ) करके 'प्रकाश'कार ने यह भी अर्थ किया है कि नल सभाजनों से तो वास्तविकता छिपा सके 'इ'--काम ( इ. कामः तस्मै अये ) से नहीं। इस पद्य में नल का लज्जात्याग, उन्माद और मूर्छा सूचित हैं । छेकानुप्रास अलंकार ॥५२॥
अवाप सापत्रतां स भूपतिजितेन्द्रियाणां धुरि कीर्तितस्थितिः । असवरे शम्बरवैरिविक्रमे क्रमेण तत्र स्फुटतामुपेयुषि ॥५३॥
जीवातु-अवापेति । जितेन्द्रियाणां धुर्यग्ने कीतितस्थितिः स्तुतमर्यादः स भूपतिः नलः तत्र समाजे असंवरे संवरितुमशक्ये संवरणं संवरः शमश्चेत्यपि, न विद्यते संवरो यस्य तस्मिन् शम्बरवैरिविक्रमे मनसिजविकारे क्रमेण स्फुटतामुपेयुषि सति सापत्रपतां सलज्जताम् अवाप । धैर्यशालिनां तद्भङ्गस्त्रपाकर इति भावः ॥ ५३ ॥ ___ अन्वयः-जितेन्द्रियाणां धुरि कीतितस्थितिः सः भूपतिः तत्र असंवरे शम्बरवैरिविक्रमे क्रमेण स्फुटतामुपेयुषि सापत्रताम् अवाप।
हिन्दी-जितेन्द्रियों में अग्रगण्य ( जिसका कथन सर्वप्रथम हो ) वह भूमिपति सभा के बीच असंवरणीय ( रोका जा सकने वाला ) शंबरासुर के शत्रु