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समयसार
आगे परपदार्थोंसे भिन्नपना किस प्रकार प्राप्त होता है यह कहते हैं।
त्थ मम को विमोहो, बुज्झदि उवओग एव अहमिक्को । तं मोहणिम्ममत्तं, समयस्स वियाणया विंति । । ३६ ।।
ऐसा जाना जाता है कि 'मोह मेरा कोई भी नहीं है, मैं तो एक उपयोगरूप ही हूँ' उसे आगमके जाननेवाले मोहसे निर्ममत्वपना कहते हैं । । ३६ ।।
आगे इसी बातको फिरसे कहते हैं-
थम धम्मदी, बुज्झदि उवओग एव अहमिक्को । तं धम्मणिम्ममत्तं, समयस्स वियाणया विंति ।। ३७ ।।
ऐसा जाना जाता है कि धर्म आदि द्रव्य मेरे नहीं हैं, मैं तो एक उपयोगरूप हूँ उसे आगम जाननेवाले धर्मादि द्रव्योंसे निर्ममत्वपना कहते हैं । । ३७।।
आगे रत्नत्रवरूप परिणत आत्माका चिंतन किस प्रकार होता है यह कहते हैं अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसणणाणमइयो सदाऽरूवी ।
वि अस्थि मज्झ किंचिवि, अण्णं परमाणुमित्तं पि । । ३८ ।। निश्चयसे मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शनज्ञानमय हूँ, सदा अरूपी हूँ, परमाणुमात्र भी अन्य द्रव्य मेरा कुछ नहीं है ।। ३८ ।।
इस प्रकार जीवाजीवाधिकारमें पूर्वरंग समाप्त हुआ।
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आगे मिथ्यादृष्टि दुर्बुद्धि जीव आत्माको नहीं जानते यह कहते हैंअप्पाणमयाणंता, मूढा दु परप्पवादिणो केई । जीवं अज्झवसाणं, कम्मं च तहा परूविंति ।। ३९ ।। अवरे अज्झवसाणेसु, तिव्वमंदाणुभावगं जीवं । मण्णंति तहा अवरे, णोकम्मं चावि जीवोत्ति । ।४० ।। कम्मस्सुदयं जीवं, अवरे कम्माणुभायमिच्छति । तिव्वत्तणमंदत्तण, गुणेहिं जो सो हवदि जीवो । । ४१ । । जीव कम्मं उयं, दोणि वि खलु केवि जीवमिच्छंति । अवरे संजोगेण दु, कम्माणं जीवमिच्छंति । ।४२।।
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