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________________ समयसार १२३ जम्हा जाणइ णिच्चं, तम्हा जीवो द जाणओ णाणी। णाणं च जाणयादो, अव्वदिरित्तं मुणेयव्वं ।।४०३।। णाणं सम्मादिष्टुिं, दु संजमं सुत्तमंगपुव्वगयं। धम्माधम्मं च तहा, पव्वज्ज अब्भुवंति बुहा।।४०४।। शास्त्र ज्ञान नहीं है, क्योंकि शास्त्र कुछ भी जानता नहीं है इसलिए ज्ञान अन्य है और शास्त्र अन्य है ऐसा जिनेंद्रदेव जानते हैं। शब्द ज्ञान नहीं है, क्योंकि शब्द कुछ भी जानता नहीं है इसलिए ज्ञान अन्य है और शब्द अन्य है ऐसा जिनेंद्रदेव जानते हैं। रूप ज्ञान नहीं है, क्योंकि रूप कुछ भी जानता नहीं है इसलिए ज्ञान अन्य है और रूप अन्य है ऐसा जिनेंद्रदेव जानते हैं। वर्ण ज्ञान नहीं है, क्योंकि वर्ण कुछ भी जानता नहीं है इसलिए ज्ञान अन्य है और वर्ण अन्य है ऐसा जिनेंद्रदेव जानते हैं। गंध ज्ञान नहीं है, क्योंकि गंध कुछ भी जानता नहीं है इसलिए ज्ञान अन्य है और गंध अन्य है ऐसा जिनेंद्रदेव जानते हैं। रस ज्ञान नहीं है, क्योंकि रस कुछ भी जानता नहीं है इसलिए ज्ञान अन्य है और रस अन्य है ऐसा जिनेंद्रदेव जानते हैं। स्पर्श ज्ञान नहीं है, क्योंकि स्पर्श कुछ भी जानता नहीं है इसलिए ज्ञान अन्य है औरस्पर्श अन्य है ऐसा जिनेंद्रदेव जानते हैं। कर्म ज्ञान नहीं है, क्योंकि कर्म कुछ भी जानता नहीं है इसलिए ज्ञान अन्य है और कर्म अन्य है ऐसा जिनेंद्रदेव जानते हैं। धर्मास्तिकाय ज्ञान नहीं है, क्योंकि धर्मास्तिकाय कुछ भी जानता नहीं है इसलिए ज्ञान अन्य है और धर्मास्तिकाय अन्य है ऐसा जिनेंद्रदेव जानते हैं। अधर्मास्तिकाय ज्ञान नहीं है, क्योंकि अधर्मास्तिकाय कुछ भी जानता नहीं है इसलिए ज्ञान अन्य है और अधर्मास्तिकाय अन्य है ऐसा जिनेंद्रदेव जानते हैं। कालद्रव्य ज्ञान नहीं है, क्योंकि कालद्रव्य कुछ भी जानता नहीं है इसलिए ज्ञान अन्य है और कालद्रव्य अन्य है ऐसा जिनेंद्रदेव जानते हैं। आकाश भी ज्ञान नहीं है, क्योंकि आकाश कुछ भी जानता नहीं है इसलिए ज्ञान अन्य है और आकाश अन्य है ऐसा जिनेंद्रदेव जानते हैं। अध्यवसान ज्ञान नहीं है, क्योंकि अध्यवसान कुछ भी जानता नहीं है इसलिए ज्ञान अन्य है और अध्यवसान अन्य है ऐसा जिनेंद्रदेव जानते हैं। चूँकि जीव निरंतर जानता है इसलिए ज्ञायक है तथा ज्ञान है और ज्ञान ज्ञायकसे अव्यतिरिक्त - - अभिन्न है ऐसा जानना चाहिए। इस प्रकार ज्ञान ही सम्यग्दृष्टि है, संयम है, अंगपूर्वगत सूत्र है, धर्म अधर्म है तथा दीक्षा है ऐसा बुधजन अंगीकार करते हैं। ।३९०-४०४ ।। अत्ता जस्सामुत्तो', ण हु सो आहारओ हवइ एवं। आहारो खलु मुत्तो, जम्हा सो पुग्गलमओ उ ।।४०५।। णवि सक्कइ घित्तुं जं, ण' विमोत्तुं जं य जं परदव्वं । सो कोवि य तस्स गुणो, पाउग्गिओ विस्ससो वावि।।४०६।। १. जस्स अमुत्तो। २. आहारगो। ३. हवदि। ४. दु। ५. ण मुंचदे चेव जं परं दव्वं । ज. वृ. । ६. पाउग्गिय ज. वृ. ।
SR No.009561
Book TitleSamaya Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages79
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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