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समयसार
भी गुण-लाभ नहीं करता है, क्योंकि उसके ज्ञानकी श्रद्धा नहीं है।।२७४ ।।
आगे फिर कोई पूछता है कि उसके धर्मका श्रद्धान तो है, उसका निषेध कैसे करते हो? इसका उत्तर देते हैं --
सद्दहदि य पत्तेदि य, रोचेदि य तह पुणो य फासेदि ।
धम्मं भोगणिमित्तं, ण दु' सो कम्मक्खयणिमित्तं ।।२७५।। वह अभव्य जीव धर्मका श्रद्धान करता है, प्रतीति करता है, रुचि करता है और अनुष्ठानरूपसे स्पर्श करता है, परंतु भोगमें निमित्तभूत धर्मका श्रद्धान आदि करता है। कर्मक्षयमें निमित्तभूत धर्मका श्रद्धानादि नहीं करता।
भावार्थ -- अभव्य जीव शुभ-योगरूप धर्मका श्रद्धानादि करता है जो कि सांसारिक भोगोंका कारण है। शुद्धोपयोगरूप धर्मका श्रद्धानादि नहीं करता जो कि कर्मक्षयका कारण है।।२७५ ।।
आगे व्यवहारको प्रतिषेध्य और निश्चयको प्रतिषेधक कहा सो इनका क्या स्वरूप है? यह कहते हैं --
आयारादि णाणं, जीवादी दंसणं च विण्णेयं। छज्जीवणिकं च तहा, भणइ चरित्तं तु ववहारो।।२७६।। आदा खु मज्झणाणं, आदा में दंसण५ चरित्तं च।
आदा पच्चक्खाणं, आदा मे संवरों जोगों ।।२७७।। आचारांग आदि शास्त्र ज्ञान है, जीवादि तत्त्वोंको दर्शन जानना चाहिए, यह निकायके जीव चारित्र हैं ऐसा व्यवहार नय कहता है। और निश्चयसे मेरा आत्मा ही ज्ञान है, मेरा आत्मा ही दर्शन और चारित्र है, मेरा आत्मा ही प्रत्याख्यान है तथा मेरा आत्मा ही संवर और योग है ऐसा निश्चय नय कहता है।।२७६२७७।। आगे रागादिके होने में कारण क्या है? इसका उत्तर देते हैं --
जह फलिहमणी सुद्धो, ण सयं परिणमइ रायमाईहिं। रंगिज्जदि अण्णेहिं दु, सो रत्तादीहिं दव्वेहिं ।।२७८ ।। एवं णाणी सुद्धो, ण सयं परिणमइ रायमाईहिं। राइज्जदि अण्णेहिं दु, सो रागादीहिं दोसेहिं ।।२७९।।
५. दंसणे।
१. पुणो वि ज. वृ.। २. हु ज. वृ.। ३. छज्जीवाणं रक्खा ज. वृ.। ४. णाणे । ६.चरित्ते। ७. पच्चक्खाणे। ८. संवरे। ९. जोगे ज. वृ.।