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समयसार
आगे अध्यवसान स्वार्थक्रियाकारी किस प्रकार नहीं है यह कहते हैं --
अज्झवसाणणिमित्तं, जीवा बज्झंति कम्मणा जदि हि।
मुच्चंति मोक्खमग्गे, ठिदा य ता किं करोसि तुम।।२६७।। यदि जीव अध्यवसानके कारण कर्मसे बँधते हैं और मोक्षमार्गमें स्थित हुए कर्मसे छूटते हैं तो इसमें तू क्या करता है?
भावार्थ -- यह जो बाँधने-छोड़नेका अध्यवसान है उसने परमें कुछ भी नहीं किया। क्योंकि इसके न होनेपर जीव अपने सराग-वीतराग परिणामोंसे ही बंध-मोक्षको प्राप्त होता है और इसके होनेपर भी जीव अपने सराग-वीतराग परिणामोंके अभावमें बंध-मोक्षको प्राप्त नहीं होता। इसलिए अध्यवसान परमें अकिंचित्कर होनेसे स्वार्थक्रियाकारी नहीं है।।२६७ ।।
आगे रागादिके अध्यवसानसे मोहित हुआ जीव समस्त परद्रव्योंको अपना समझता है यह कहते हैं --
सव्वे करेइ जीवो, अज्झवसाणेण तिरियणेरइए। देवमणुये य सव्वे, पुण्णं पावं च णेयविहं ।।२६८।। धम्माधम्मं च तहा, जीवाजीवे अलोयलोयं च।
सव्वे करेइ जीवो, अज्झवसाणेण अप्पाणं ।।२६९।। जीव अध्यवसानके द्वारा समस्त तिर्यंच, नारकी, देव, मनुष्य पर्यायोंको अपना करता है, अनेक प्रकारके पुण्य-पापको अपना करता है तथा धर्म, अधर्म, जीव, अजीव, अलोक व लोक सभीको अपना करता है।।२६८-२६९।। .
____ आगे कहते हैं कि जिन मुनियोंके उक्त अध्यवसान नहीं है वे कर्मबंधसे लिप्त नहीं हैं -- १. २६७ की गाथाके आगे ज. वृ. में निम्नांकित गाथा अधिक पाये जाते हैं --
कायेण दुक्खवेमिय, सत्ते एवं जुजं मदिं कुणसि। सवावि एस मिच्छा, दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता।। वाचाए दुक्खवेनिय, सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि। सवावि एस मिच्छा, दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता।। मणसावि दुक्खवेमिय, सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि। सवावि एस मिच्छा, दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता।। सच्छेण दुक्खवेमिय, सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि। सवावि एस मिच्छा, दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता।। कायेण च वाचा वा मणेण सुहिदे करेमि सत्तेति। एवं पि हवदि मिच्छा सुहिदा कम्मेण जदि सत्ता।। ज. वृ.