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कुन्दकुन्द-भारती
व्यवहार नय अभूतार्थ है -- असत्यार्थ है और शुद्ध नय भूतार्थ -- सत्यार्थ कहा गया है। जो जीव भूतार्थ नयका आश्रय करता है वह निश्चयसे सम्यग्दृष्टि होता है।।११।। आगे किन्हीं जीवोंके किसी समय व्यवहार भी प्रयोजनवान् है ऐसा कहते हैं --
सुद्धो सुद्धादेसो, णायव्वो परमभावदरिसीहिं।
ववहारदेसिदा पुण, जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे।।१२।। जो परमभाव अर्थात् उत्कृष्ट दशामें स्थित हैं उनके द्वारा शुद्ध तत्त्वका उपदेश करनेवाला शुद्ध निश्चय नय जाननेयोग्य है और जो अपरम भावमें स्थित है अर्थात् अनुत्कृष्ट दशामें विद्यमान हैं वे व्यवहार नयसे उपदेश करनेयोग्य हैं।।१२।। आगे शुद्ध निश्चय नयसे जाने हुए जीवाजीवादि पदार्थ ही सम्यक्त्त्व हैं ऐसा कहते हैं --
भूयत्थेणाभिगदा, जीवाजीवा य पुण्यपावं च।
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ।।१३।। निश्चय नयसे जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ही सम्यक्त्व हैं। यहाँ विषय-विषयीमें अभेदकी विवक्षा कर जीवाजीवादि पदार्थोंको ही सम्यक्त्व कह दिया है।।१३।। आगे शुद्ध नयका स्वरूप कहते हैं --
जो पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुढे अणण्णयं णियदं।
अविसेसमजुत्तं, तं सुद्धणयं वियाणीहि ।।१४।। जो नय आत्माको बंधरहित, परके स्पर्शसे रहित, अन्यपने रहित, चंचलता रहित, विशेष रहित और अन्य पदार्थके संयोग रहित अवलोकन करता है -- जानता है उसे शुद्ध नय जानो।।१४।। आगे जो उक्त प्रकारकी आत्माको जानता है वही जिनशासनको जानता है ऐसा कहते हैं -
जो पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुढे अणण्णमविसेसं। अपदेससुत्तमझं, पस्सदि जिणसासणं सव्वं ।१५।।
१. णादव्यो .... ज. वृ.। २. दरसीहिं ... ज. वृ. । ३. अपदिश्यतेऽर्थो येन स भवत्यपदेश शब्दो द्रव्यश्रुतमिति यावत्, सूत्रपरिच्छित्तिरूपं भावश्रुतं ज्ञानसमय इति, तेन शब्दसमयेन वाच्यं ज्ञानमयेन परिच्छेद्यमपदेशसूत्रमध्यं भण्यते इति। ज. वृ. । ४. १५ वी गाथाके आगे ज. वृत्तिमें निम्नांकित गाथा अधिक व्याख्यात है --
आदा खु मज्झ णाणे आदा में दंसणे चरित्ते य। आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे।।