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कुन्दकुन्द-भारती
अह समयप्पा परिणमदि, कोहभावेण एस दे बुद्धी। कोहो परिणामयदे, जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा।।१२४ ।। कोहुवजुत्तो कोहो, माणुवजुत्तो य माणमेवादा।
माउवजुत्तो माया, लोहुवजुत्तो हवदि लोहो ।।१२५ ।। यदि तेरा ऐसा मत है कि यह जीव कर्मोंमें न स्वयं बँधा है और न क्रोधादिरूप स्वयं परिणमन करता है तो अपरिणामी हो जायेगा और जब जीव क्रोधादिरूप स्वयं परिणमन नहीं करेगा तो संसारका अभाव हो जायेगा अथवा सांख्यमतका प्रसंग आ जायेगा। इससे बचनेके लिए यदि यह कहेगा कि पुद्गलकर्मरूप क्रोध, जीवको क्रोधरूप परिणमाता है तो उसके उत्तरमें कहना यह है कि जब जीव स्वयं परिणमन नहीं करता है तब उसे क्रोध कैसै परिणमायेगा? अथवा तुम्हारा यह अभिप्राय हो कि आत्मा स्वयं क्रोधभावसे परिणमन करता है तो क्रोध नामक द्रव्यकर्म, जीवको क्रोधरूप परिणमाता है यह कहना मिथ्या सिद्ध होगा। इस कथनसे यह बात सिद्ध हुई कि जब आत्मा क्रोधसे उपयुक्त होता है तब क्रोध ही है, जिस समय मानसे उपयुक्त होता है उस समय मान ही है, जब मायासे उपयुक्त होता है तब माया ही है और जब लोभसे उपयुक्त होता है तब लोभ ही है।।१२१-१२५ ।।
आगे कहते हैं कि आत्मा जिस समय जो भाव करता है उस समय वह उसका कर्ता होता है
जं कुणदि भावमादा, कत्ता सो होदि तस्स कम्मस्स।
णाणिस्स दुणाणमओ, अण्णाणमओ अणाणिस्स।।१२६।। आत्मा जिस भावको करता है उस भावरूप कर्मका कर्ता होता है। वह भाव ज्ञानी जीवके ज्ञानमय होता है और अज्ञानी जीवके अज्ञानमय होता है।।१२६ ।।
आगे ज्ञानमय भावसे क्या होता है और अज्ञानमय भावसे क्या होता है? इसका उत्तर कहते
१. १२५ वीं गाथाके आगे ज. वृ. में निम्नलिखित ३ गाथाओंकी व्याख्या अधिक की गयी है --
जो संगं तु मुइत्ता जाणदि उवओगमप्पगं सुद्धं । तं णिसंगं साहुं परमट्ठवियाणया विंति।। जो मोहं तु मुइत्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं। तं जिदमोहं साहुं परमट्टवियाणया विंति।। जो धम्मं तु मुइत्ता जाणदि उवओगमप्पगं सुद्धं ।
तं धम्मसंगमुक्कं परमट्ठवियाणया विंति।। २. भावस्स ज. वृ.