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समयसार
आगे इसी प्रकार और भी विकल्प करता है यह कहते हैं --
तिविहो एसुवओगो, 'अप्पवियप्पं करेदि धम्माई।
कत्ता तस्सुवओगस्स, होदि सो अत्तभावस्स।।९५ ।। यह तीन प्रकारका उपयोग धर्मादि आत्म विकल्प करता है। अर्थात् उन्हें अपना मानता है उस अपने उपयोगभावका वह कर्ता होगा।।९५ ।। आगे यह सब अज्ञानकी महिमा है यह कहते हैं --
एवं पराणि दव्वाणि, अप्पयं कुणदि मंदबुद्धीओ।
अप्पाणं अवि य परं, करेइ अण्णाणभावेण।।९६।। इस प्रकार अज्ञानी जीव अज्ञानभावसे परद्रव्योंको अपनी करता है और आत्मद्रव्यको पररूप करता है।।९६।।
आगे इस कारण यह निश्चित हुआ कि ज्ञानसे जीवका कर्तापन नष्ट होता है, यह कहते हैं
एदेण दु सो कत्ता, आदा णिच्छयविदूहिं परिकहिदो।
एवं खलु जो जाणदि, सो मुंचदि सव्वकत्तित्तं ।।९७।। निश्चयके जाननेवालोंने कहा है कि इस अज्ञानभावसे ही जीव कर्ता होता है। इसे जो जानता है वह यथार्थ सब प्रकारका कर्तृत्व छोड़ देता है।।९७ ।। व्यवहारी लोग जो ऐसा कहते हैं कि --
ववहारेण दु एवं, करेदि घडपडरथाणि दव्वाणि।
करणाणि य कम्माणि य, णोकम्माणीह विविहाणि।।९८।। आत्मा व्यवहारसे घट पट रथ इन वस्तुओंको, चक्षुरादि इंद्रियोंको, ज्ञानावरणादि कर्मोको और इस लोकमें स्थित अनेक प्रकारके नोकर्मोंको -- शरीरोंको करता है।।९८ ।। वह ठीक नहीं है --
जदि सो परदव्वाणि य, करिज्ज णियमेण तम्मओ होज्ज।
जम्हा ण तम्मओ तेण, सो ण तेसिं हवदि कत्ता।।९९।। यदि वह आत्मा पर द्रव्योंको करे तो नियमपूर्वक तन्मय हो जाय, परंतु चूँकि तन्मय नहीं होता इसलिए वह उनका कर्ता नहीं है।
१. अस्स वियप्पं -- असद्विकल्पं ज. वृ. । २. अत्र आदा इत्यपि पाठः।