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कुन्दकुन्द-भारती आगे शुभोपयोगी श्रमणका लक्षण प्रकट करते हैं --
अरहंतादिसु भत्ती, वच्छलदा पवयणाभिजुत्तसु।
विज्जदि जदि सासण्णे, सा सुहजुत्ता भवे' चरिया।।४६।। यदि मुनि अवस्थामें अरहंत आदिमें भक्ति तथा परमागमसे युक्त महामुनियोंमें वत्सलता -- गोवत्सकी तरह स्नेहानुवृत्ति है तो वह शुभोपयोगसे युक्त चर्या है।।४६। आगे शुभोपयोगी मुनियोंकी प्रवृत्ति दिखलाते हैं --
वंदणणमंसणेहिं, अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती।
समणेसु समावणओ, ण प्रिंदिया रायचरियम्मि।।४७।। सराग चारित्रकी दशामें अपनेसे पूज्य मुनियोंको वंदना करना, नमस्कार करना, आते हुए देख उठकर खड़ा होना, जाते समय पीछे पीछे चलना इत्यादि प्रवृत्ति तथा उनके श्रम -- थकावटको दूर करना निंदित नहीं है।।४७।। आगे शुभोपयोगी मुनियोंकी अन्य प्रवृत्तियाँ दिखलाते हैं --
दंसणणाणुवदेसो, सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं।
चरिया हि सरागाणं, जिणिंदपूजोवदेसो य।।४८।। दर्शन और ज्ञानका उपदेश देना, शिष्योंका संग्रह करना, उनका पोषण करना तथा जिनेंद्रदेवकी पूजाका उपदेश देना यह सब सरागी अर्थात् शुभोपयोगी मुनियोंकी प्रवृत्ति है।।४८।।
आगे जो कुछ भी प्रवृत्तियाँ होती हैं वे शुभोपयोगी मुनियोंके ही होती हैं ऐसा प्रतिपादन करते हैं --
उवकुणदि जोवि णिच्चं, चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स।
कायविराधणरहिदं, सोवि सरागप्पधाणो से ।।४९।। जो ऋषि मुनि यति और अनगार के भेदसे चतुर्विध मुनिसमूहका षट्कायिक जीवोंकी विराधनासे रहित उपकार करता है -- वैयावृत्त्यके द्वारा उनको सुख पहुँचाता है वह भी सरागप्रधान अर्थात् शुभोपयोगी साधु है।।४९।।
आगे षट्कायिक जीवोंकी विराधना न करते हुए ही वैयावृत्त्य करना चाहिए ऐसा कहते हैं
जदि कुणदि कायखेदं, वेज्जावच्चत्थमुज्जदो समणो।
ण हवदि हवदि अगारी, धम्मो सो सावयाणं से।।५०।। १. पवयणाहिजुत्तेसु ज. वृ.। २. हवे ज. वृ. । ३. ...विराहण... ज. वृ.