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________________ प्रवचनसार १९९ क्योंकि उसके लिए उपयोगका तन्मयैकभाव आवश्यक है और वह तब तक संभव नहीं होता जबतक परिग्रहमें आसक्ति बनी रहती है। इसलिए अंतरंग संयमका घातक समझकर साधुको परिग्रह दूरसे ही छोड़ देना चाहिए।।२१।। आगे परमोपेक्षारूप संयम धारण करनेकी शक्ति न होनेपर आहार तथा संयम, शौच और ज्ञानके उपकरण मुनि ग्रहण कर सकते हैं ऐसा कहते हैं -- छेदो जेण ण विज्जदि, गहणविसग्गेसु सेवमाणस्स । समणो तेणिह वट्टदु, कालं खेत्तं वियाणत्ता।।२२।। ग्रहण करते तथा छोड़ते समय धारण करनेवाले मुनिके जिस परिग्रहसे संयमका घात न हो, मुनि, काल तथा क्षेत्रका विचार कर उस परिग्रहसे इस लोकमें प्रवृत्ति कर सकता है। यद्यपि जहाँ समस्त परिग्रहका त्याग होता है ऐसा परमोपेक्षरूप संयम ही आत्माका धर्म है। यही उत्सर्गमार्ग है, परंतु अब क्षेत्र और कालके दोषसे मनुष्य हीन शक्तिके धारक होने लगे हैं अतः परमोपेक्षारूप संयमके धारक मुनि अत्यल्प रह गये हैं। हीन शक्तिके धारक मुनियोंको शरीरकी रक्षा के लिए आहार ग्रहण करना पड़ता है, विहारादिके समय शारीरिक शुद्धिके लिए कमंडलु रखना पड़ता है, उठते-बैठते समय जीवोंका विघात बचानेके लिए मयूरपिच्छी रखनी पड़ती है तथा उपयोगकी स्थिरता और ज्ञानकी वृद्धिके लिए शास्त्र रखना होता है। यद्यपि ये परिग्रह हैं और परमोपेक्षारूप संयमके धारक मुनिके इनका अभाव होता है, परंतु अल्प शक्तिके धारक मुनियोंका इनके बिना निर्वाह नहीं हो सकता इसलिए कुंदकुंद स्वामी अपवाद मार्गके रूपमें इनके ग्रहण करनेको आज्ञा प्रदान करते हैं। इनके ग्रहण करते समय मुनिको इस बातका विचार अवश्य करना चाहिए कि हमारे द्वारा स्वीकृत उपकरणोंमें कोई उपकरण संयमका विघात करनेवाला तो नहीं है। यदि हो तो उसका परित्याग करना चाहिए। यहाँ कितने ही लोग, कालका अर्थ शीतादि ऋतु और क्षेत्रका अर्थ शीतप्रधान आदि देश लेकर ऐसा व्याख्यान करने लगे हैं कि मुनि शीतप्रधान देशोंमें शीत ऋतुके समय कंबलादि ग्रहण कर सकते हैं ऐसी कुंदकुंद स्वामीकी आज्ञा है। सो यह उनकी मिथ्या कल्पना है। कुंदकुंद स्वामी तो अणुमात्र परिग्रहके धारक मुनिको निगोदका पात्र बतलाते हैं। वे कंबल धारण करनेकी आज्ञा किस प्रकार दे सकते हैं? इसी गाथामें वे स्पष्ट लिख रहे हैं कि जिनके ग्रहण करने तथा छोड़नेमें वीतराग भावरूप संयम पदका भंग न हो ऐसे परिग्रहसे मुनि अपनी प्रवृत्ति -- निर्वाह मात्र कर सकता है, उसे अपना समझकर ग्रहण नहीं कर सकता। कंबलादिके ग्रहण और त्याग दोनोंमें ही राग द्वेषकी उत्पत्ति होनेसे वीतराग भाव रूप संयमका घात होता है यह प्रत्येक मनुष्य अनुभवसे समझ सकता है अतः वह कदापि ग्राह्य नहीं है।।२२।। आगे अपवादमार्गी मुनिके द्वारा ग्रहण करनेयोग्य परिग्रहका स्पष्ट वर्णन करते हैं --
SR No.009560
Book TitlePravachana Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages88
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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