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________________ १३३ शुद्धयोगी सामर्थ्य से जिसके घातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं, क्षायोपशमिक ज्ञान और दर्शनसे पृक्त होने कारण जो अतींद्रिय हुआ है, समस्त अंतरायका क्षय हो जानेसे जिसके अनंत उत्कृष्ट वीर्य प्रकट हुआ है और ज्ञानावरण तथा दर्शनावरणके अत्यंत क्षयसे जिसके केवलज्ञान तथा केवलदर्शनरूप ते जागृत हुआ है वह शुद्धात्मा ही स्वयं ज्ञान तथा सुख रूप परिणमन करने लगता है। इस प्रकार ज्ञान और सुख आत्माके स्वभाव ही हैं। चूँकि स्वभाव परकी अपेक्षा नहीं रखता इसलिए शुद्धात्मा इंद्रियों के बिना ही ज्ञान और सुख संभव हैं । । १९ ।। १ आगे अतींद्रिय होनेसे शुद्धात्माके शारीरिक सुख-दुःख नहीं होते हैं ऐसा कथन करते हैं. -- सोक्खं वा पुण दुक्खं, केवलणाणिस्स णत्थि देहगदं । जम्हा अदिदियत्तं, जादं तम्हा दु तं णेयं ।। २० ।। चूँकि केवलज्ञानीके अतींद्रियपना प्रकट हुआ है इसलिए उनके शरीरगत सुख और दुःख नहीं होते ऐसा जानना चाहिए ।। २० ।। आगे केवली भगवानको अतींद्रिय ज्ञानसे ही सब वस्तुका प्रत्यक्ष ज्ञान होता है यह कहते हैं प्रवचनसार परिणमदो खलु णाणं, पच्चक्खा सव्वदव्वपज्जाया । सो व ते विजाणदि, 'ओग्गहपुव्वाहिं किरियाहिं । । २१ । । केवलज्ञानरूप परिणमन करनेवाले केवली भगवानके समस्त द्रव्य और उनकी समस्त पर्यायें सदा प्रत्यक्ष रहती हैं। वे अवग्रह आदिरूप क्रियाओंसे द्रव्य तथा पर्यायोंको नहीं जानते हैं ।। २१ । । आगे केवलीके कुछ परोक्ष नहीं है ऐसा कहते हैं -- णत्थि परोक्खं किंचिवि, समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स । अक्खातीदस्स सदा, सयमेव हि णाणजादस्स ।। २२ ।। जो समस्त आत्माके प्रदेशोंमें स्पर्श रस गंधरूप और शब्दज्ञानरूप समस्त इंद्रियोंके गुणोंसे समृद्ध हैं, अथवा आत्माके समस्त गुणोंसे संपन्न हैं, इंद्रियोंसे अतीत हैं तथा स्वयं ही सदा ज्ञानरूप परिणत हो रहे हैं ऐसे केवली भगवानके कुछ भी पदार्थ परोक्ष नहीं हैं -- वे त्रिकाल और लोकालोकवर्ती समस्त पदार्थोंको यगपद् जानते हैं।। २२ ।। १. ३. १९ वीं गाथाके आगे जयसेन वृत्तिमें निम्नलिखित गाथा अधिक है। तं सव्वरि इटुं अमरासुरप्पहाणेहिं । ये सद्दहंति जीवा तेसिं दुक्खाणि खीयंति ।। -- ज. वृ. अथवा द्वितीयव्याख्यानं - अक्ष्णोति ज्ञानेन व्याप्नोतीत्यक्ष आत्मा तद्गुणसमृद्धस्य ज. वृ. । २. उग्गहपुव्वाहिं ज. वृ.।
SR No.009560
Book TitlePravachana Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages88
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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