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________________ कुन्दकुन्द-भारती खोलकर सम्यग्दृष्टि बनता है, फिर मुनि अवस्थामें राग और द्वेषको क्षीण करता हुआ सुख-दुःखमें मध्यस्थ रहता है-- अनुकूल प्रतिकूल सामग्रीके मिलनेपर हर्ष-विषादका अनुभव नहीं करता है । । १०३ । । आगे एकाग्ररूपसे चिंतन करना ही जिसका लक्षण है ऐसा ध्यान आत्माकी अशुद्ध दशा को नहीं रहने देता ऐसा निश्चय करते हैं -- जो खविदमोहकलुसो, विसयविरत्तो मणो णिरुंभित्ता । समवद्विदो सहावे, सो अप्पाणं हवदि धादा' ।। १०४ ।। जिसने मोहजन्य कलुषताको दूर कर दिया है, जो पंचेंद्रियोंके विषयोंसे विरक्त है और मनको रोककर जो स्वस्वभावमें सम्यक् प्रकारसे स्थित है वही पुरुष आत्माका ध्यान करनेवाला है। जब तक इस पुरुषका हृदय मिथ्यादर्शनके द्वारा कलंकित हो रहा है, विषयकषायमें इसकी आसक्ति बढ़ रही है, पवनवेगसे ताड़ित ध्वजाके समान जबतक इसका चित्त चंचल रहता है और विविध इच्छाओंके कारण जब तक इसका ज्ञानोपयोग आत्मस्वभावमें स्थिर न रहकर इधर उधर भटकता रहता है तबतक यह पुरुष शुद्ध आत्मस्वरूपका ध्यान नहीं कर सकता यह निश्चित है । । १०४ ।। आगे जिन्हें शुद्धात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो गयी है ऐसे सर्वज्ञ भगवान् किसका ध्यान करते हैं ऐसा प्रश्न प्रकट करते हैं -- १९० णिहदघणघादिकम्मो, पच्चक्खं सव्वभावतच्चण्हू । यंतगदो समणो, झादि किमट्ठे असंदेहो । । १०५ ।। जिन्होंने अत्यंत दृढ घातिया कर्मोंको नष्ट कर दिया है, जो प्रत्यक्षरूपसे समस्त पदार्थोंको जाननेवाले हैं, जो जाननेयोग्य पदार्थोंके अंतको प्राप्त हैं तथा संदेहरहित हैं ऐसे महामुनि केवली भगवान् किसलिए अथवा किस पदार्थका ध्यान करते है ? ।। १०५ ।। आगे केवली भगवान् इसका ध्यान करते हैं यह बतलाते हुए पूर्वोक्त प्रश्नका समाधान प्रकट करते हैं - सव्वाबाधविजुत्तो, समंतसव्वक्खसोक्खणाणड्ढो । भूदो अक्खात दो, झादि अणक्खो परं सोक्खं । । १०६ ।। जो सब प्रकारकी पीड़ाओंसे रहित हैं, सर्वांगपरिपूर्ण आत्मजन्य अनंत सुख तथा अनंत ज्ञानसे युक्त हैं और स्वयं इंद्रियरहित होकर इंद्रियातीत हैं -- इंद्रियज्ञानके अविषय हैं ऐसे केवली भगवान् अनुकूलतारूप उत्कृष्ट सुखका ध्यान करते हैं। सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिवर्ती नामक दो शुक्लध्यान केवली भगवान्‌के तेरहवें १. झादा ज. वृ. । २. कमठ्ठे ज. वृ.
SR No.009560
Book TitlePravachana Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages88
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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