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पुन्५५-नारता
वीतराग और सरागके भेदसे चारित्र दो प्रकारका है। उनमें से वीतराग चारित्रसे निर्वाणकी प्राप्ति होती है और सराग चारित्रसे देवेंद्र आदिका वैभव प्राप्त होता है।।६।। आगे चारित्रका स्वरूप कहते हैं --
चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समोत्ति णिहिट्ठो।
मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हि समो।।७।। निश्चयसे चारित्र धर्मको कहते हैं, शम अथवा साम्यभावको धर्म कहा है और मोह -- मिथ्यादर्शन तथा क्षोभ -- राग द्वेषसे रहित आत्माका परिणाम शम अथवा साम्यभाव कहलाता है।।७।। आगे चारित्र और आत्माकी एकता सिद्ध करते हैं --
परिणमदि जेण दव्वं, तक्कालं तम्मयत्ति पण्णत्तं।
तम्हा धम्मपरिणदो, आदा धम्मो मुणेयव्यो।।८।। द्रव्य जिस कालमें जिस रूप परिणमन करता है उस कालमें वह उसी रूप हो जाता है ऐसा जिनेंद्र भगवानने कहा है इसलिए धर्मरूप परिणत आत्मा धर्म हो जाता है --चारित्र हो जाता है ऐसा जानना चाहिए। अब जीवकी शुभ अशुभ और अशुद्ध दशाका निरूपण करते हैं --
जीवो परिणमदि जदा, सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो।
सुद्धेण तदा सुद्धो, हवदि हि परिणामसब्भावो।।९।। जीव जिस समय शुभ अथवा अशुभरूप परिणमन करता है उस समय शुभ अथवा अशुभ हो जाता है और जिस समय शुद्धरूप परिणमन करता है उस समय उसके शुद्ध रूप परिणामका सद्भाव हो जाता है।।९।। आगे परिणाम वस्तुका स्वभाव है ऐसा निश्चय करते हैं --
णत्थि विणा परिणाम, अत्थो अत्थं विणेह परिणामो।
दव्वगुणपज्जयत्थो, अत्थो अत्थित्तणिव्वत्ता।।१०।। पर्यायके बिना अर्थ नहीं होता और अर्थके बिना पर्याय नहीं रहता। द्रव्य गुण और पर्यायमें स्थित रहनेवाला अर्थ ही अस्तित्वगुणसे युक्त होता है। जिस प्रकार कटक कुंडलादि पदार्थोंके बिना सुवर्ण नहीं रह सकता और सुवर्णके बिना कटक कुंडलादि पर्याय नहीं रह सकते उसी प्रकार पर्यायोंके बिना कोई भी पदार्थ नहीं रह सकता और पदार्थके बिना कोई भी पर्याय नहीं रह सकते। तात्पर्य यह है कि जो पदार्थ द्रव्य गुण और पर्यायमें स्थित रहता है -- सामान्य विशेषात्मक होता है उसीका सद्भाव होता है। सामान्य और १. तक्काले ज. वृ. ।२. मुणेदव्वो ज. वृ. ।