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________________ १५० कुन्दकुन्द-भारती और निश्चयसे उसीका मोह विनाशको प्राप्त होता है। अरहंत भगवानका जैसा स्वरूप है निश्चय नयसे आत्माका भी वैसा स्वरूप है, अत: अरहंतके ज्ञानसे आत्माका ज्ञान स्वभावसिद्ध है। जिस पुरुषको सौ टंचके सुवर्णके समान शुद्ध आत्मस्वरूपका बोध हो गया है उसका मोह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।।८।। आगे यद्यपि मैंने स्वरूपचिंतामणि पाया है तो भी प्रमादरूपी चोर विद्यमान हैं इसलिए जागता हूँ यह कहते हैं -- - जीवो ववगदमोहो, उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्म। जहदि जदि रागदोसे, सो अप्पाणं लहदि सुद्धं ।।८१।। जिसका दर्शनमोह नष्ट हो गया है ऐसा जीव आत्माके यथार्थ स्वरूपको जानने लगता है -- उसका अनुभव करने लगता है और वही जीव यदि राग-द्वेषको छोड़ देता है तो शुद्ध आत्मस्वरूपको प्राप्त होता है। मिथ्यादर्शनके नष्ट होनेसे आत्माके यथार्थ स्वरूपका श्रद्धान और बोध हो जाता है तथा रागद्वेषके छोड़नेसे शुद्ध आत्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है। जिसका मिथ्यादर्शन नष्ट हो गया है ऐसे जीवको राग-द्वेषका नाश करनेके लिए सदा जागरूक रहना चाहिए, क्योंकि ये चोरोंकी भाँति शुद्धात्मतत्त्वरूपी चिंतामणिको चुरानेमें सदा प्रयत्नशील रहते हैं।।८१ ।। - आगे भगवान अरहंत देवने स्वयं अनुभव कर यही मोक्षका वास्तविक मार्ग बतलाया है ऐसा निरूपण करते हैं -- 'सव्वेपि य अरहंता, तेण विधाणेण खविदकम्मंसा। किच्चा तधोवएसं, णिव्वादा ते णमो तेसिं।।८२।। सभी अरहंत भगवान् उस पूर्वोक्त विधिसे ही कर्मोंके अंशोंका क्षय कर तथा उसी प्रकारका उपदेश देकर निर्वाणको प्राप्त हुए हैं। मेरा उन सबके लिए नमस्कार है'।।८२।।। आगे शुद्धात्मलाभके विरोधी मोहका स्वभाव और उसकी भूमिका का वर्णन करते हैं -- दव्वादिएसु मुढो, भावो जीवस्स हवदि मोहोत्ति। खुब्भदि तेणोछण्णो, पय्या रागं व दोसं वा।।८३।। सव्वेवि ज. वृ.। ८२ वीं गाथाके आगे ज. वृ. में निम्न गाथा अधिक व्याख्यात है -- दंसणसुद्धा पुरिसा णाणपहाणा समग्गचरियत्था। पूजासक्काररिहा दाणस्स य हि णमो तेसि ।। ज. वृ.। ३. तेणुच्छण्णो ज. वृ. ।
SR No.009560
Book TitlePravachana Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages88
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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