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________________ कुन्दकुन्द-भारती करके -- नीला बनाकर रहता है उसी प्रकार ज्ञान भी पदार्थोंको अभिभूत कर -- ज्ञानरूप बनाकर उनमें रहता है। यथार्थमें इंद्रनील मणि अपने आपमें ही रहता है, दूधमें जो नीलाकार परिणमन हो रहा है वह दूधका ही है, परंतु इंद्रनील मणिके संबंधसे होनेके कारण उपचारसे इंद्रनील मणिका कहलाता है, इसी प्रकार ज्ञान सदा ज्ञानरूप ही रहता है परंतु वह अपनी स्वच्छताके कारण दर्पणकी तरह घटपदादि पदार्थ रूप हो जाता है। ज्ञानमें जो घटपटादि पदार्थोंका आकार प्रतिफलित होता है वह यथार्थमें ज्ञानका ही है, परंतु पदार्थोंके निमित्तसे होता है इसलिए पदार्थोंका कहलाता है। पदार्थ ज्ञानमें प्रतिबिंबित होते हैं इसी अपेक्षा 'ज्ञान पदार्थों में व्याप्त रहता है' ऐसा व्यवहार होता है।।३०।। आगे व्यवहारसे पदार्थ ज्ञानमें रहते हैं यह बतलाते हैं -- जदि ते ण संति अत्था, णाणे णाणं, ण होदि सव्वगयं। सव्वगयं वा णाणं, कहं ण णाणट्ठिया अत्था' ।।३१।। यदि वे पदार्थ ज्ञानमें नहीं रहते हैं ऐसा माना जाय तो ज्ञान सर्वगत नहीं हो सकता और यदि ज्ञान सर्वगत है ऐसा माना जाता है तो पदार्थ ज्ञानमें स्थित क्यों न माने जावें? अवश्य माने जावें। आगे यद्यपि ज्ञानका पदार्थोके साथ ग्राहक-ग्राह्य संबंध है तथापि निश्चयसे दोनों पृथक हैं ऐसा बतलाते हैं -- __गेण्हदि णेव ण मुंचदि, ण परं परिणमदि केवली भगवं। पेच्छदि समंतदो सो, जाणदि सव्वं णिरवसेसं।।३२।। केवली भगवान् परपदार्थोंको न ग्रहण करते हैं न छोड़ते हैं और न उनरूप परिणमन ही करते हैं, फिर भी वे समस्त पदार्थोंको संपूर्ण रूपसे सर्वांग ही देखते हैं और जानते हैं। यद्यपि निश्चयनयसे केवली भगवान् किन्हीं परपदार्थोंका ग्रहण तथा त्याग आदि नहीं करते तथापि व्यवहार नयसे वे समस्त पदार्थों के ज्ञाता द्रष्टा कहे जाते हैं।।३२ ।। आगे केवलज्ञानी और श्रुतकेवलीमें समानता बतलाते हैं -- जो हि सुदेण विजाणदि, अप्पाणं जाणगं सहावेण। तं सुयकेवलिमिसिणो, भणंति लोगप्पदीवयरा।।३३।। निश्चयसे जो पुरुष श्रुतज्ञानके द्वारा स्वभावसे ही जाननेवाले अपने आत्माको जानता है उसे लोकको प्रकाशित करनेवाले ऋषि श्रुतकेवली कहते हैं।। जिस प्रकार केवलज्ञानी एक साथ परिणत समस्त चैतन्य विशेषसे शोभायमान केवलज्ञानके १. अट्ठा ज. वृ.।
SR No.009560
Book TitlePravachana Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages88
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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