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कुन्दकुन्द-भारती जैसा धर्मास्तिकायका स्वरूप ऊपर कहा गया है वैसा ही अधर्मास्तिकायका स्वरूप जानना चाहिए। विशेषता इतनी ही है कि यह स्थितिक्रियासे युक्त जीव और पुद्गल द्रव्यके स्थिति करनेमें ठहरनेमें पृथिवीकी तरह कारण है।।८६।।
धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायकी विशेषताओंका वर्णन जादो अलोगलोगो, तेसिं सब्भावदो य गमणठिदी।
दो वि य मया विभत्ता, अविभत्ता लोयमेत्ता य।।८७।। जिनके सद्भावसे लोक और अलोक हुआ है तथा गमन और स्थिति होती है वे धर्म और अधर्म दोनों ही अस्तिकाय परस्परविभक्त हैं -- जुदे-जुदे हैं, एक क्षेत्रावगाही होनेसे अविभक्त हैं और लोकप्रमाण हैं।।८७।।
ण य गच्छदि धम्मत्थी, गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स।
हवदि गती सप्पसरो, जीवाणं पुग्गलाणं च।।८८।। धर्मास्तिकाय न स्वयं गमन करता है और न प्रेरक होकर अन्य द्रव्यका गमन कराता है। वह केवल उदासीन रहकर ही जीवों और पुद्गलोंकी गतिका प्रवर्तक होता है।।८८ ।।
विज्जदि जेसिं गमणं, ठाणं पुण तेसिमेव संभवदि।
ते सगपरिणामेहिं दु, गमणं ठाणं च कुव्वंति।।८९।। जिन जीव और पुद्गलोंका चलना तथा स्थिर होना होता है उन्हींका फिर स्थिर होना तथा चलना होता है। इससे सिद्ध होता है कि वे अपने-अपने उपादान कारणोंसे ही गमन तथा स्थिति करते हैं। धर्म
और अधर्म द्रव्य केवल सहायक कारण हैं। यदि इन्हें प्रेरक कारण माना जाय तो जो जीव या पुद्गल चलते वे चलते ही जाते और जो ठहरते वे ठहरते ही रहते, क्योंकि विरुद्ध प्रवृत्तिसे दोनों परस्पर मत्सर होना संभव है।।८९।।
आकाशास्तिकायका लक्षण सव्वेसिं जीवाणं, सेसाणं तह य पुग्गलाणं च।
जं देदि विवरमखिलं, तं लोए हवदि आयासं।।१०।। समस्त जीवों और पुद्गलोंको तथा धर्म, अधर्म और कालको जो संपूर्ण अवकाश देता है अर्थात् जिसके समस्त प्रदेशोंमें जीवादि द्रव्य व्याप्त हैं वह लोकके भीतरका आकाश है -- लोकाकाश है।।९० ।।
लोक और अलोकका विभाग जीवा पुग्गलकाला, धम्माधम्मा य लोगदो णण्णा। तत्तो अणण्णमण्णं, आयासं अंतवदिरित्तं ।।११।।