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४ जीव पदार्थ सामान्य
प्रकार ज्ञानका स्वरूप भी जानना, देखना तथा अनुभवन मात्र ही जाननेमे आता है। जिस प्रकार जलके स्वरूपको कोई आकृतिविशेष नही होती, जिसे कि किसी प्रयोग-विशेषमे लाया जा सके, इसी प्रकार ज्ञानके स्वरूपकी भी कोई आकृति-विशेष नही होती जिससे कि किसी विशेष वस्तुको ही जाना जा सके। जिस प्रकार जल तथा स्वर्णका स्वरूप किसी स्थान-विशेषमे नही देखा जा सकता, विचारनेपर ज्ञानमे अवश्य आ जाता है, उसी प्रकार ज्ञानका स्वरूप भी किसी व्यक्ति-विशेषमे नही देखा जा सकता, पर विचारनेसे ध्यानमे अवश्य आ जाता है ।
जिस प्रकार प्रकाशमे वस्तुएँ दीखती हैं परन्तु प्रकाश स्वय वे वस्तुएँ नही है, इसी प्रकार ज्ञानमे वस्तुएँ तथा संकल्प-विकल्प दोखते है, परन्तु ज्ञान स्वय उन वस्तुओ तथा संकल्प-विकल्पोस्वरूप नही है। जिस प्रकार प्रकाश व्यापक होकर वस्तुओको प्रकाशित करता है, उसी प्रकार ज्ञान व्यापक होकर सर्व लोकको जानता है। इसीलिए ज्ञानके ज्ञानमात्र स्वरूपको ज्ञान, प्रकाश या ज्योति कह दिया जाता है, परन्तु वह कोई दीपकके प्रकाशवत् या सूर्यको ज्योतिवत् नही है। जिस प्रकार कमरेमे रखे हुए दीपकको प्रकाश कमरेकी वस्तुओको ही प्रकाशित करता है उससे बाहरको नही, उसी प्रकार अन्त करणके सकल्प-विकल्पोमे रुका हुआ ज्ञान सकल्पगत वस्तुओको ही जानता है उससे बाहरकी नहीं। जिस प्रकार कमरेसे निकलकर खुले आकाशमे रख देनेपर उस दीपकका प्रकाश वहां चारो ओर फैलकर एकदम वहाँकी सकल वस्तुओको प्रकाशित कर देता है, उसी प्रकार अन्तःकरणके सकल्प-विकल्पोंसे निकालकर शून्यमे रख देनेपर ज्ञान व्यापकर विश्वकी सकल चेतन-अचेतन वस्तुओको युगपत् अर्थात् एकदम जना देता है।