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४ जीव पदार्थ सामान्य
शेष रहा प्रतीति तथा अनुभवमे आये वही चेतन तत्त्व है । बात कुछ अटपटी-सी है, क्योकि इस प्रकार बाहर व भीतरसे सब कुछ निकाल देनेपर यहाँ कोरा शून्य रहा प्रतीत होने लगता है। परन्तु ऐसा न समझ भाई ! शून्यकी जो प्रतीति तुझे हो रही है, उसका कारण यह नही है कि वहाँ कुछ है ही नहीं, बल्कि यह है कि तुझे इतनी सूक्ष्म दृष्टिसे देखनेका अभ्यास नही है। सूक्ष्म दृष्टिसे देखने तथा अनुभव करनेपर वहाँ अब भी एक सूक्ष्म तेज प्रत्यक्ष होता है। जिसमे न विचारणा हे, न सुख-दुःखका द्वन्द्व और न सकल्प-विकल्प। वह पूर्ण निर्द्वन्द्व, निर्विकल्प व निराकार ज्ञानप्रकाश मात्र है। जिसके द्वारा तुझे शून्यकी प्रतीति हुई है बस वही वह तत्त्व है। शब्दकी शक्ति उसको स्पर्श नही कर सकती। उसे विशेष योगीजन ही देखनेको समर्थ हैं। उसके दर्शन अनन्त आनन्दमय होते हैं।
'यह निर्विकल्प प्रकाश मात्र तथा आनन्दमय ज्ञान क्या वस्तू है, यह समझनेके लिए दृष्टान्त देता हूँ। कुछ सूक्ष्मतासे विचार करना । देखिए, नदीका जल यद्यपि तरगित तथा गॅदला है, परन्तु क्या जल भी कभी तरगित या गॅदला होता है ? नदीमे-से यदि तरंग तथा गाद दोनोको दूर कर दिया जाये तो क्या वहां शून्य रह जायेगा? जिस प्रकार तरग व गॅदलापन जलमे अवश्य है पर वह जलका रूप नही है, जल तो उनके पीछे रहनेवाला वह पदार्थ है जिसमे कि वे हैं । इसी प्रकार सकल्प-विकल्प तथा सुख-दुख ज्ञानमे अवश्य है, पर वह ज्ञानका स्वरूप नही है। ज्ञान तो उनके पीछे रहनेवाला वह पदार्थ है, जिसमे कि वे प्रतिभासित हो रहे हैं। जिस प्रकार तरगें तथा गॅदलापन दूर करनेपर भी जल अवश्य रहता है, परन्तु वह शान्त तथा स्वच्छ होता है, उसी प्रकार सकल्प-विकल्प तथा दुःख-सुख दूर कर देनेपर भी ज्ञान अवश्य रह जाता है परन्तु वह निर्विकल्प तथा शुद्ध होता है।