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करता है और इसलिए जीव सज्ञाको प्राप्त होता है । अव्वल तो शरीर तथा शरीरके साधनोको अर्थात् बाह्य जीवनको ही सर्वस्व सझता रहता है और यदि बहुत बढा भी तो अन्तकरणपर आकर अटक जाता है ।
बुद्धि, चित्त, अहंकार तथा मन इन्हीको अपना स्वरूप मानकर
कतिया शिवना है । न स्वयंको जान पाता है और न उसकी