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११ काल पदार्थ
२४९ किसी भी विषयमे हीनाधिकता या तरतमता दर्शानेके लिए जैन दर्शनकार सर्वत्र वही पद्धति अपनाते हैं, जो कि पहले पुद्गलको स्थूलता तथा सूक्ष्मता दर्शानेके लिए अपनायी गयी है। अर्थात् प्रत्येक बातको जघन्य मध्य तथा उत्कृष्ट अथवा साधारण रूप, तररूप और तमरूप, अथवा साधारण कुछ अधिक और बहुत अधिक, इस प्रकार तीन खण्डो द्वारा कहनेवाली क्रमिक विकासके प्रदर्शनकी पद्धति । यहाँ कालचक्रमे भी सुख तथा दुखकी क्रमिक वृद्धि हानि दर्शानेके लिए वही पद्धति अपनायी गयी है।
उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी दोनो ही कल्पोको पृथक्-पृथक् तरतमताके छह-छह विभागोमे विभाजित करके पूरे युगको अर्थात् कालके एक पूरे चवकरको १२ विभागोमे विभाजित कर दिया गया है। उत्सर्पिणी नामका कल्प ऊँचेकी तरफ अर्थात् दु खसे सुखकी तरफ जाता है । इस कल्पमे दु.ख बराबर घटता रहता है और सुख बराबर बढता जाता है, इसलिए इस कल्पके छह विभागोके नाम हैंदुखमा-दु.खमा, दुःखमा, दुखमा-सुखमा, सुखमा-दुखमा, सुखमा, सुखमा-सुखमा । अवसर्पिणी नामका कल्प इससे उलटी दिशामे अर्थात सुखसे दु.खकी ओर नीचेको आता है, अत उसके छह विभागोंके नाम हैं-सुखमा-सुखमा, सुखमा, सुखमा-दु खमा, दुःखमा-सुखमा दु.खमा, दुखमान्दु खमा । डबल कहनेसे उत्कृष्ट अर्थ होता है, एक बार कहनेसे मध्यम होता है और दोनो विरोधी बातें आगे-पीछे कहने से जघन्य होता है। इसमे जो नाम पहले लिया उसका अश अधिक रहता है, जैसे सुखमा-दुखमाका अर्थ है कि दुखकी अपेक्षा सख कुछ अधिक है, दुखमा-सुखमाका अर्थ है कि सुखकी अपेक्षा दुख कुछ अधिक है। वर्तमानमे अवसर्पिणी कल्प चलता है, अर्थात् पृथिवीपर धर्म तथा सुखकी हानि होती जा रही है। इस कल्पका यह पञ्चम काल सर्वत्र प्रसिद्ध है जिसका अर्थ है कि अव दु.खमा काल है।