SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० धर्म-अधर्म पदार्थ २३७ इनकी सहायताका भी यह अर्थ न समझना कि ये जीव तथा पुद्गलको ज़बरदस्ती चलाते या ठहराते अथवा मोडते हैं। स्वतन्त्रतासे जीव तथा पुद्गल जब स्वय चलना या ठहरना चाहे तो ये द्रव्य सहायक मात्र होते हैं। अर्थात् ये उन्हे ज़बरदस्ती न चलाते हैं, न ठहराते या मोडते हैं, परन्तु इतना अवश्य है कि यदि ये न हो तो वे पदार्थ चल-ठहर तथा मुड नहीं सकते। जैसे कि मछली पानीमे चलती हैं, तहां पानी उसे जबरदस्ती चलाता हो सो बात नही है। मछली स्वतन्त्रतासे स्वयं ही चलती है, परन्तु यदि जल न हो तो चलना चाहकर भी वह चल न सके । इसी प्रकार गर्मीके दिनोमे धूप मे चलता हुआ पथिक वृक्षके सायेमे विश्राम पानेको ठहर जाता है। तहां वृक्ष उसे जबरदस्ती नही ठहराता। पथिक स्वतन्त्र रूपसे स्वय ठहरता है, परन्तु यदि वृक्ष न होता तो ठहरना चाहते हुए भी वह ठहर न सकता । यहाँ जीव तथा पुद्गल के लिए धर्म द्रव्यको ऐसा समझो जैसे मछलीको पानी और अधर्मको ऐसा समझो जैसे कि पथिकको वृक्ष । ४. लोकालोक विभाग एक व्यापक अनन्त आकाशमे लोकाकाश तथा अलोकाकाशरूप विभाग करनेके साधन भी वास्तवमे यह दोनो द्रव्य ही हैं, क्योकि इन्हीके कारण जीव तथा पुद्गलके गमन व स्थानकी सीमा बंधी हुई है। ये न होते तो वे जहां भी चाहते वहां ही चले जाते और जहाँ भी चाहते वहां ही जाकर रह लेते। इस प्रकार लोक तथा अलोक इन दोनोको कोई व्यवस्था न हो सकती। परन्तु जैसे मछली चलनेकी शक्ति रखते हुए भी जलसे वाहर नही जा सकती, इसी प्रकार स्वय चलने तथा व्हरनेमे समर्थ होते हुए भी जीव तथा पुद्गल लोकसे बाहर नहीं जा सकते अर्थात् धर्म द्रव्यसे वाहर नही जा सकते। इसी प्रकार अधर्म द्रव्यसे बाहर ठहर भी नही
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy