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८ पुद्गल-पदार्थ स्वभाव है, परन्तु विशेष रूपसे उसमे स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण गुण पाये जाते है। १५ पुद्गल द्रव्यको जानने का प्रयोजन
जितना भी यह जगत् है वह सब इन स्कन्धोका ही खेल है। उत्पन्न हो-होकर विनष्ट होते है, इसलिए ये सब असत् हैं, मिथ्या हैं, माया है, प्रपच हैं। जीव इस प्रपच को देखता है और इसमे ही लुभा जाता है। इसमे लुभाकर जैसे मछली कांटेमे फंस जाती है, हाथी खड्डेमे गिर जाता है और बन्धनको प्राप्त हो जाता है, पतग स्वयं अग्निमे भस्म हो जाता है, हरिण राग सुनकर स्तब्ध हो जाता है और शिकारीके जालमे फँस जाता है, उसी प्रकार सभी इसमे फंस जाते हैं। इसमे फंसकर अपने-परायेका तथा हिताहितका विवेक खो बैठते हैं। इसकी प्राप्तिमे हँसते है तथा इसकी हानिमे रोते हैं। इस प्रकार बराबर हर्ण विषाद करते हुए व्याकुल बने रहते हैं और चौरासी लाख योनियोमे बराबर जन्मते-मरते हुए दुखी रहते हैं। इस भूल-भूलैयामे फंसकर वे यह भी जान नही पाते कि वे वास्तवमे चेतन है, शरीर जड है, और बाहरके इन दृष्ट पदार्थोसे उनका कोई नाता नही है । गुरुओके इस प्रकारके वचन भी उन्हे भाते नही। यदि वह यह जान जाये कि यह सब तमाशा पुद्गल पदार्थका है, जो जीवोको धोखेमे डालने के लिए है, तो वह यहांसे दृष्टि हटाकर अपने चेतन स्वरूपपर लक्ष्य ले जाये और सदा तृप्त तथा आनन्द-निमग्न रहे। बस यही है प्रयोजन इस पुद्गल पदार्थको जाननेका।