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६ जीव के धर्म तथा गुण
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ढके हुए भी चेतनका अपना प्रकाश तो पूर्णं ही रहता है, केवल अन्तकरणपर प्रतिबिम्बित जो ज्ञान प्रकट होता है वही कम या अधिक होता है । जिस प्रकार सुर्यका प्रकाश तो एक रूप उज्ज्वल ही है, परन्तु उसके आगे लाल, नीले, पीले आदि पर्दे या शीशे आ जानेपर वह लाल, नीला, पीला आदि हो जाता है, उसी प्रकार चेतनका ज्ञान तो एकरूप उज्ज्वल ही है परन्तु उसके आगे भिन्नभिन्न प्रकारके अन्तःकरण आ जानेसे वह चित्र-विचित्र हो जाता है ।
इस प्रकार सावरण ज्ञानमे हीनाधिकता है, परन्तु निवारण ज्ञान पूर्ण होता है । सावरण ज्ञान चित्र-विचित्र होता है, परन्तु निरावरण ज्ञान एकरूप होता है । इसी प्रकार दर्शनके सम्बन्धमे भी जानना । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन. पर्यय ज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये सब सावरण हैं और केवलज्ञान तथा केवलदर्शन ये दोनो निरावरण हैं । इसी प्रकार लोकिक वीयं सावरण है और अलौकिक वीयं निरावरण है ।
२५. स्वभाव तथा विभाव
जबतक पदार्थ बिगडता नही तबतक वह स्वभावमे स्थित कहा जाता है, परन्तु बिगड़ जानेपर वह विकारी कहलाता है । स्वभाव - स्थित रहनेके कारण ताजे भोजनका स्वाद तथा स्पर्श ठीक रहता है, गन्ध भी ठीक रहती है और रूप भी ठीक रहता है, परन्तु विकारी हो जानेपर सडे हुए बासी भोजनका स्पर्श भी बिगड जाता है, स्वाद तथा गन्ध भी बिगड जाते हैं और रूप भी विगड़ जाता है । इसी प्रकार स्वभाव स्थित रहनेके कारण अन्त. करणसे मुक्त जीवका स्पर्श अर्थात् आनन्द भी स्वतन्त्र, उज्ज्वल तथा निराकुल रहता है, स्वाद अर्थात् अनुभव भी उज्ज्वल, पवित्र व निराकुल