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६ जीव के धर्म तथा गुण
१४९ स्वय उसी आकारका हो जाता है । यह बात तभी सम्भव है जबकि वह सिकुड़ व फैल सकता हो । अत. उसमे सकोच-विस्तारका कोई गुण मानना युक्ति-सिद्ध है। शरीरधारी ससारी जीवोमे ही इस गुणका प्रत्यक्ष किया जा सकता है, क्योकि उन्हे ही छोटे या बड़े शरीर धारण करने पड़ते हैं। शरीर-रहित मुक्त जीवोमे इसका कार्य दृष्टिगत नही हो सकता, क्योकि उन्हे शरीर धारण करनेसे कोई प्रयोजन नही है। १०. गुणोके भेद-प्रमेद
जीवके सामान्य गुणोका कथन कर देनेके पश्चात् अब उनका कुछ विशेष ज्ञान करानेके लिए उनके कुछ भेद-प्रभेदोका भी परिचय पाना आवश्यक है अत अब उन गुणोके कुछ विशेष-विशेष भेद
बताता हूँ।
११. ज्ञानके भेद
ज्ञानके दो भेद हैं-लौकिक तथा अलौकिक । लौकिक ज्ञान चार प्रकारका है-मति, श्रुत, अवधि व मन.पर्यय । अलौकिक ज्ञान एक ही प्रकार है। उसका नाम है केवलज्ञान । इन पांचोमे भी प्रत्येकके अनेक-अनेक भेद हो जाते है, जिन सबका कथन यहाँ किया जाना असम्भव है। हाँ, इन पांचका सक्षिप्त-सा परिचय दे देता हूँ ताकि शास्त्रमे कही इन ज्ञानोका नाम आये तो आप उनका अर्थ समझ लें । इन पाँचोमे-से मति तथा श्रुत ये पहले दो ज्ञान तो हीन या अधिक रूपमे छोटे या बड़े सभी जीवोमे पाये जाते है, परन्तु आगेवाले तीन किन्ही विशेष योगियोमे ही कदाचित उनके तपके प्रभावसे उत्पन्न होते हैं। १२ मतिज्ञान
पांचो इन्द्रियो से तथा मनसे जो कुछ भी प्रत्यक्ष या परोक्ष ज्ञान