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________________ ६ जीवके धर्म तथा गुण १४३ तरफ झपटता प्रतीत होता है, जिस प्रकाशके कारण कि वह विषय स्पष्ट दीखता है उस प्रकाशका नाम ही दर्शन है, और बाहर के पदार्थों को देखनेका नाम ज्ञान है । इसीको यो कह सकते है कि बाह्य पदार्थको देखे तो ज्ञान है और जीव स्वयं अपनेको देखे तो दर्शन है। ज्ञान सदा ही इस दर्शन - पूर्वक हुआ करता है । क्योकि जबतक वह अन्दरका प्रकाश पहली इन्द्रियसे हटकर अगली इन्द्रियपर नही जायेगा, तबतक वह इन्द्रिय जाननेको समर्थ नही हो सकती । जैसे कि किसीके साथ बातें करनेमे तन्मय होनेके कारण आप अपने सामनेसे गुज़रते हुए व्यक्तिको भी देख नही सकते । इस प्रकार ज्ञान और दर्शन लगभग एक ही जातिके होनेके कारण यद्यपि पृथक्-पृथक् बतानेकी बजाय एक ज्ञानमे ही गर्भित करके बताये जा सकते हैं, तदपि इनको पृथक्-पृथक् करके दो गुणोके रूपसे बतानेमे आचार्योंका एक विशेष प्रयोजन है, जो अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टिसे ही जाना सकता है । उस प्रकारकी सूक्ष्म दृष्टिसे वस्तुका विवेचन क्योकि इस पुस्तकका विषय नही है इसलिए उसे यहाँ नही बताया जा सकता । हाँ, स्थूल रूपसे पदार्थ - विज्ञान पढ़ लेनेके पश्चात् जब आप सूक्ष्म रूपसे भी इसे पढनेके योग्य हो जायेंगे, तब वह सूक्ष्म रहस्य भी बता दिया जायेगा । यहाँ तो केवल इतना ही जानिए कि क्योकि विषय दो प्रकारके हैं - बाहरी व भीतरी, इसलिए उनको जाननेके साधन भी दो प्रकारके हैं। बाहरके विषयोको जानना ज्ञान है । भीतरके विषयोको अर्थात् अन्त. करणको देखना दर्शन है | ५. सुख तीसरा गुण है सुख । सुख भी दो प्रकारका होता है - एक बाहरी तथा दूसरा भीतरी । बाहरी सुख तो शरीर सम्बन्धी है
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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