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६ जीवके धर्म तथा गुण
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तरफ झपटता प्रतीत होता है, जिस प्रकाशके कारण कि वह विषय स्पष्ट दीखता है उस प्रकाशका नाम ही दर्शन है, और बाहर के पदार्थों को देखनेका नाम ज्ञान है । इसीको यो कह सकते है कि बाह्य पदार्थको देखे तो ज्ञान है और जीव स्वयं अपनेको देखे तो दर्शन है। ज्ञान सदा ही इस दर्शन - पूर्वक हुआ करता है । क्योकि जबतक वह अन्दरका प्रकाश पहली इन्द्रियसे हटकर अगली इन्द्रियपर नही जायेगा, तबतक वह इन्द्रिय जाननेको समर्थ नही हो सकती । जैसे कि किसीके साथ बातें करनेमे तन्मय होनेके कारण आप अपने सामनेसे गुज़रते हुए व्यक्तिको भी देख नही सकते ।
इस प्रकार ज्ञान और दर्शन लगभग एक ही जातिके होनेके कारण यद्यपि पृथक्-पृथक् बतानेकी बजाय एक ज्ञानमे ही गर्भित करके बताये जा सकते हैं, तदपि इनको पृथक्-पृथक् करके दो गुणोके रूपसे बतानेमे आचार्योंका एक विशेष प्रयोजन है, जो अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टिसे ही जाना सकता है । उस प्रकारकी सूक्ष्म दृष्टिसे वस्तुका विवेचन क्योकि इस पुस्तकका विषय नही है इसलिए उसे यहाँ नही बताया जा सकता । हाँ, स्थूल रूपसे पदार्थ - विज्ञान पढ़ लेनेके पश्चात् जब आप सूक्ष्म रूपसे भी इसे पढनेके योग्य हो जायेंगे, तब वह सूक्ष्म रहस्य भी बता दिया जायेगा । यहाँ तो केवल इतना ही जानिए कि क्योकि विषय दो प्रकारके हैं - बाहरी व भीतरी, इसलिए उनको जाननेके साधन भी दो प्रकारके हैं। बाहरके विषयोको जानना ज्ञान है । भीतरके विषयोको अर्थात् अन्त. करणको देखना दर्शन है |
५. सुख
तीसरा गुण है सुख । सुख भी दो प्रकारका होता है - एक बाहरी तथा दूसरा भीतरी । बाहरी सुख तो शरीर सम्बन्धी है