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६ जीवके धर्म तया गुण
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जानेपर ये इन्द्रियां शरीरमे रहते हुए भी कुछ नही जान पाती। इन इन्द्रियोंके पीछे गुप्त रूपसे बैठा हुआ जो जीव पदार्थ है वही जानता है । यह जानना ही उसका सर्व प्रमुख गुण है। ४. दर्शन
दर्शन कहते हैं देखनेको। देखनेका अर्थ यहां इन धन, कुटुम्ब, पुस्तक आदि बाहरके पदार्थोको देखनेका नहीं है, बल्कि अन्तर्चक्ष द्वारा अपने भीतर झांककर देखनेका है। आंख भी दो प्रकारको है-एक वाहरको और दूसरी भीतरको। वाहरकी आंखको तो सव जानते हैं पर भीतरकी आँख कौन-मी है यह पता नही चलता। अरे । हम नित्य प्रति उसका प्रयोग करते हैं, फिर भी उसे भूल जाते हैं। यह महान् आश्वयं है। बाहरकी आंखसे देखनेको यहाँ दर्शन नही कहा गया है। भले ही लोकमे उसे दर्शन करना या देखना कहे पर यहां तो वह रूप सम्बन्धी ज्ञान ही है। दर्शन तो भीतरी चक्षु द्वारा भीतरमे ही देखनेका नाम है। कोई भी वस्तु दो स्थानोपर देखी जा सकती है-एक बाहरमे और एक भीतरमे । वाहरमे तो वह उमो समय देखी जा सकती है जब कि आपकी बाल खुली हो, वाहरमे सूर्य या दोपक आदिका प्रकारा हो और वह वस्तु नामने पडी हो, जैसे कि अपने सामने सडे पुत्रको आप देखते