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५ जीव पदार्थ विशेष
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जैसा बलवान् पशु भी एक मनुष्यके निर्बल बालक तकसे भय
खाता है।
कर्म-सिद्धान्त नामक पुस्तकके अन्तर्गत यह बात भली-भांति सिद्ध कर दी गयी है कि किसी भी जीवको दुख-सुख, लाभ-हानि जीवन-मरण आदि सब अपने-अपने कर्मके अनुसार ही मिलते हैं। जैसा भी कोई कर्म करेगा, वैसा ही उसका फल मिलेगा। अत. जितने प्रकारके कर्म है उतने ही प्रकारके फल भी लोकमे अवश्य होने चाहिए। तारतम्यकी अपेक्षा तथा पुण्य-पापके सम्मिश्रणको अपेक्षा कर्म अनन्तो प्रकारके हो जाते हैं और उनके फल भी अनन्तो प्रकारके ही होते है । तदपि मानसिक संस्कार मुख्यतः चार कोटिमे विभाजित किये जाते हैं ।
पहला प्रकार उन सस्कारोका समझिए जिनके कारण मन सदा ही मलिन रहता है, दूसरेके दुखकी कोई भी परवाह नही कारत, दूसरेके जीवनका शोषण करके स्वय गुलछरे उडाता है। परिग्रह-सचयका भाव मुख्यत. इसी कोटिमे आ जाता है। दूसरा प्रकार उन सस्कारोका समझिए, जिसके कारण मन मलिन तो अवश्य हो जाता है, परन्तु यह भी भाव बना रहता है कि दूसरेपर यह प्रकट न होने पावे कि मैंने उसे दुख दिया है। अर्थात् स्पष्ट रूपसे किसीका शोषण करना उसे अच्छा नही लगता, इस कारण कुछ उज्ज्वलता उसमे अवश्य रहती है। मायाचारीके भाव मुख्यत. इसी कोटिमे आते हैं । ये दो पापकी दिशाके सस्कार है, और इसी प्रकार दो पुण्यकी दिशाके समझिए । प्रेम व मृदु सस्कार हृदयमे रखते हुए सर्व लौकिक व्यवहार करना तीसरी कोटिका कर्म है, जिसके कारण यद्यपि मन उज्ज्वल रहता है परन्तु लौकिक प्रवृत्ति होनेके कारण मलिनता भी बनी रहती है। नि स्वार्थ सेवा, इश्वरपरायणता, व्रत, शील, सयम, तप आदि चौथे प्रकारके सस्कार हैं जिनके द्वारा मन अत्यन्त उज्ज्वल रहता है।