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पदार्थ विज्ञान
हो और चीटी आदि अन्य-अन्य प्राणियोके चेतन उन-उनकी पृथक्पृथक् जातियोके हो, सो बात नही है, और न ही ऐसा होना सम्भव है। ऐसा होनेपर जीव-स्वभावके सम्बन्धमे कोई सिद्धान्त ही निर्धारित नहीं किया जा सकेगा, और पूर्वकथित सस्कार नामकी कोई चीज़ न रह सकेगी। परन्तु वे कर्म-सिद्धान्त' नामक पुस्तकके अन्तर्गत तर्क, अनुभव तथा आगम तीनोके आधारपर सिद्ध कर दिये गये हैं। इसलिए यही समझना कि चेतन पदार्थ तो एक स्वभाववाला ही है, परन्तु विभिन्न सस्कारोके कारण उसके भिन्न रूप हो जाते हैं। जैसे सस्कार इस जन्ममे सग्रह करता है वैसा ही शरीर मरनेके पश्चात् वह धारण करता है। जैसे कि कोई व्यक्ति जिसकी भावना सदा ऐसी रहती है कि आप कब हटें और मै आपकी वस्तु उठाऊँ, वह अवश्य ही मरकर बिल्ली या इसी प्रकृतिका कोई अन्य प्राणी बनेगा । इसी प्रकार छल-कपटके संस्कारवाला व्यत्ति लोमडी और क्रूर परिणामवाला व्यक्ति सिंह बनेगा। क्योकि ऐसे-ऐसे शरीरोको धारण करके ही उसे अपने पूर्व संस्कारोको ठीक प्रकारसे भोगनेका अवसर प्राप्त हो सकेगा। १६ संसार तथा मोक्ष
जीवका जन्म-मरण ही उसका ससार कहलाता है और यह अन्तःकरणके भावोके अनुसार हुआ करता है । इसका कारण भी यह है कि जैसा कि सर्वदा बताया जा रहा है-ससारी जीवका जीवन दो प्रकारका है--एक अन्तरग जीवन और दूसरा बाह्य जीवन । अतरग जीवने अन्त करण है और बाह्य जीवन है शरीर । इन दोनोका क्षीर-नीरवत् घनिष्ट सम्बन्ध है, जिसेसे कोई भी इन्कार नही कर सकता, क्योकि यह बात सबकी प्रतीतिमे आती है कि अन्त करणमे क्रोध रूप ताप आनेपर शरीर भी तपने लगता है, शरीर भी कांपने लगता है। कोई बड़ा अपराध हो जानेपर अन्त..