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________________ प्रस्तावना सत्तावन अर्थात् नियम शब्द सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमें आता है तथा नियमसार इस शब्दमें शुद्ध रत्नत्रयका स्वरूप कहा गया है। जिनशासनमें मार्ग और मार्गका फल इन दो पदार्थोंका कथन है। उनमें मार्ग -- मोक्षका उपाय --सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र कहलाता है और निर्वाण, मार्गका फल कहलाता है। इन्हीं तीनका वर्णन इस ग्रंथमें किया गया है। सर्वप्रथम सम्यग्दर्शनका लक्षण लिखते हुए कहा है -- अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं । ववगयअसेसदोसो सयलगुणप्पाह वे अत्तो।।५।। आप्त, आगम और तत्त्वोंके श्रद्धासे सम्यक्त्व -- सम्यग्दर्शन होता है। जिसके समस्त दोष नष्ट हो गये हैं तथा जो सकल गुणस्वरूप है वह आप्त है। क्षुधा तृषा आदि अठारह दोष कहलाते हैं और केवलज्ञान आदि गुण कहे जाते हैं। आप्त भगवान् क्षुधा तृषा आदि समस्त दोषोंसे रहित हैं तथा केवलज्ञानादि परमविभव -- अनंत गुणरूप ऐश्वर्यसे सहित हैं। यह आप्त ही परमात्मा कहलाता है। इससे विपरीत आत्मा परमात्मा नहीं हो सकता। आगम और तत्त्वका वर्णन करते हुए लिखा है -- तस्स मुहग्गदवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं । आगममिदि परिकहियं तेण दु कहियं हवंति तच्चत्था।।८।। उन आप्त भगवानके मुखसे उद्गत -- दिव्यध्वनिसे प्रकटित तथा पूर्वापरविरोधरूप दोषसे रहित जो शुद्ध वचन है वह आगम कहलाता है और आगमके द्वारा कथित जो जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश हैं ये तत्त्वार्थ हैं। ये तत्त्वार्थ नाना गुण और पर्यायोंसे सहित हैं। इन तत्त्वार्थोंमें स्वपरावभासी होनेसे जीवतत्त्व प्रधान है। उपयोग सुखका लक्षण है। उपयोगके ज्ञानोपयोग और दर्शनीय योगकी अपेक्षा दो भेद हैं। ज्ञानोपयोग स्वभाव और विभावके भेदसे दो प्रकारका है। केवलज्ञान स्वभाव ज्ञानोपयोग है और विभाव ज्ञानोपयोग सम्यग्ज्ञान तथा मिथ्याज्ञानकी अपेक्षा दो प्रकारका है। विभाव सम्यग्ज्ञानोपयोगके मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययके भेदसे चार भेद हैं और विभाव मिथ्याज्ञानोपयोगके कुमति, कुश्रुत और कुअवधिको अपेक्षा तीन भेद हैं। इसी तरह दर्शनोपयोगके भी स्वभाव और विभावकी अपेक्षा दो भेद हैं। उनमें केवल दर्शनोपयोग है तथा चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये तीन दर्शन विभाव दर्शनोपयोग हैं। पर्याय भी परकी अपेक्षासे सहित और परकी अपेक्षासे रहित, इस तरह दो भेद हैं। अर्थपर्याय और व्यंजनपर्यायके भेदसे भी पर्याय दो प्रकारको होती है। परके आश्रयसे होनेवाली षड्गुणी हानि-वृद्धिरूप जो संसारी जीवकी परिणति है वह विभाव अर्थ पर्याय है तथा सिद्ध परमेष्ठीकी जो षड्गुणी हानिवृद्धिरूप परिणति है वह जीवकी स्वभाव अर्थ पर्याय है। प्रदेशवत्त्व गुणके विकाररूप जो जीवकी परिणति है अर्थात् जिसमें किसी आकारकी अपेक्षा रक्खी जाती है उसे व्यंजनपर्याय कहते हैं। इसके भी स्वभाव और विभावकी अपेक्षा दो भेद होते हैं। अंतिम शरीरसे किंचिदून जो सिद्ध परमेष्ठीका आकार है वह जीवकी स्वभाव व्यंजन पर्याय है और कर्मोपाधिसे रचित जो नरनारकादि पर्याय है वह विभाव व्यंजन पर्याय है। व्यवहार नयसे आत्मा पदगल कर्मका कर्ता और भोक्ता है तथा अशद्ध निश्चयनयसे कर्मजनित रागादि भावोंका कर्ता है। संस्कृत टीकाकारने नयविवक्षासे कर्तृत्व और भोक्तृत्व भावको स्पष्ट करते हुए कहा है कि निकटवर्ती अनुपिचरित असद्भूत व्यवहार नयकी अपेक्षा आत्मा द्रव्यकर्मोंका कर्ता है तथा उनके फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले सुख दुःखका भोक्ता है। अशुद्ध निश्चय नयकी अपेक्षा समस्त मोह-राग-द्वेषरूप भावकाँका कर्ता है तथा उन्हींका भोक्ता है। अनुपचरित असद्भूत व्यवरहार नयकी अपेक्षा शरीररूप नोकर्मोंका कर्ता और भोक्ता है तथा उपचरित असद्भूत
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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