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दिव्वेण पुप्फेण, दिव्वेण धूवेण, दिव्वेण चुण्णेण, दिव्वेण वासेण, दिव्वेण ण्हाणेण णिच्चकालं अच्छंति, पुज्जंति, वंदंति, णमंसंति, अहमपि इह संतो तत्थ संताइं णिच्चकालं अंचेमि, पुज्जेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं होउ मज्झं । ।
हे भगवन्! मैंने चैत्यभक्तिसंबंधी कायोत्सर्ग किया है, उसकी आलोचना करना चाहता हूँ। अधोलोक, मध्यलोक तथा ऊर्ध्वलोकमें जो कृत्रिम - अकृत्रिम जिनप्रतिमाएं हैं उन सबको तीनों लोकोंमें निवास करनेवालेw भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और कल्पवासी इस तरह चार प्रकारके देव अपने परिवारसहित दिव्य गंध, दिव्य पुष्प, दिव्य धूप, दिव्य चूर्ण, दिव्य सुगंधित पदार्थ और दिव्य अभिषेकके द्वारा नित्यकाल अर्चा करते हैं, पूजा करते हैं, वंदना करते हैं, नमस्कार करते हैं। मैं भी यहाँ रहता हुआ वहाँ रहनेवाली प्रतिमाओंकी नित्यकाल अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वंदना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ । इसके फलस्वरूप मेरे दुःखों का क्षय हो, कर्मोंका क्षय हो, रत्नत्रयकी प्राप्ति हो, सुगतिमें गमन हो, समाधिमरण हो और जिनेंद्र भगवान् के गुणोंकी प्राप्ति हो ।।
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