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________________ कु५फु५ मारता उग्गहईहावायाधारणगुणसंपदेहिं संजुत्ता। सुत्तत्थभावणाए, भावियमाणेहिं वंदामि।।९।। वे आचार्य आगमके अर्थकी भावनासे भाव्यमान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा नामक गुणरूपी संपदाओंसे संयुक्त होते हैं। उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ।।९।। तुम्हं गुणगणसंथुदि, अजाणमाणेण जो मया वुत्तो। देउ मम बोहिलाहं, गुरुभत्तिजुदत्थओ णिच्चं ।।१०।। हे आचार्य! आपके गुणसमूहकी स्तुतिको न जानते हुए मैने जो बहुत भारी भक्तिसे युक्त स्तवन कहा है वह मेरे लिए निरंतर बोधिलाभ -- रत्नत्रयकी प्राप्ति प्रदान करे।।१०।। __ अंचलिका इच्छामि भंते! आयरियभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं, सम्मणाणसम्मदं सणसम्मचारित्तजुत्ताणं पंचविहाचाराणं आयरियाणं, आयारादिसुदणाणोवदेसयाणं उवज्ड याणं, तिरयणगुणपालणरयाणं सव्वसाहूणं, णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिनगुणसंपत्ति होउ मज्झं।। हे भगवन्! मैंने आचार्यभक्तिसंबंधी कायोत्सर्ग किया है। उसकी आलोचना करना चाहता हूँ। जो सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रसे युक्त हैं तथा पाँच प्रकारके आचारका पालन करते हैं ऐसे आचार्योंकी, आचारांग आदि श्रुतज्ञानका उपदेश देनेवाले उपाध्यायोंकी और रत्नत्रयरूपी गुणोंके पालन करनेमें लीन समस्त साधुओंकी मैं निरंतर अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वंदना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ। उसके फलस्वरूप मेरे दुःखोंका क्षय हो, कर्मोंका क्षय हो , रत्नत्रयकी प्राप्ति हो, सुगतिमें गमन हो, समाधिमरण हो और मेरे लिए जिनेंद्रभगवान्के गुणोंकी प्राप्ति हो।। *** ७. निर्वाणभक्ति अट्ठावयम्मि उसहो, चंपाए वासुपुज्यजिणणाहो। उज्जंते णेमिजिणो, पावाए णिव्वुदो महावीरो।।१।। अष्टापद (कैलास पर्वत)पर ऋषभनाथ, चंपापुरमें वासुपूज्य जिनेंद्र, ऊर्जयंत गिरि(गिरनार पर्वत)पर
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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