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________________ ३७८ कुदकुद-भारती लिया है, कषायोंको जीत लिया है, राग द्वेष और मोहको जीत लिया है तथा सुख और दुःखको जीत लिया हैन मुनियोंको मैं नमस्कार करता हूँ ।। २२ ।। एवं अभित्या, अणयारा रागदोसपरिसुद्धा । संघस्स वरसमाहिं, मज्झवि दुक्खक्खयं दिंतु ।। २३ ।। इस प्रकार मेरे द्वारा स्तुत तथा राग द्वेषसे विशुद्ध -- रहित मुनि, संघको उत्तम समाधि प्रदान करें और मेरे भी दुःखों का क्षय करें ।। २३ ।। अंचलिका इच्छामि भंते! योगिभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं, अड्डाइज्जदीवदोसमुद्देसु पण्णारसकम्मभूमिसु आदावणरुक्खमूल अब्भोवासठाणमोणवीरासणेक्कपास कुक्कुडासणचउत्थपक्खखवणादियोगजुत्ताणं सव्वसाहूणं णिच्चकालं अंचेमि पूजेमि वंदामि णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिनगुणसंपत्ति होऊ मज्झं ।। हे भगवन्! मैंने योगिभक्तिसंबंधी कायोत्सर्ग किया है। उसकी आलोचना करना चाहता हूँ । अढ़ाई द्वीप, दो समुद्रों तथा पंद्रह कर्मभूमियोंमें आतापनयोग, वृक्षमूलयोग, अभ्रावास (खुले आकाशके नीचे बैठना) योग, मौन, वीरासन, एकपार्श्व, कुक्कुटासन, उपवास तथा पक्षोपवास आदि योगों से युक्त समस्त साधुओंकी नित्य ही अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वंदना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ। उसके फलस्वरूप मेरे कर्मोंका क्षय हो, रत्नत्रयकी प्राप्ति हो, सुगतिमें गमन हो, समाधिमरण हो और जिनेंद्र भगवान् के गुणोंकी संप्राप्ति हो । *** ६. आचार्यभक्ति - देसकुलजाइसुद्धा, विसुद्धमणवयणकायसंजुत्ता। तुम्हं पायपयोरुहमिह मंगलमत्थु मे णिच्चं । । १ । । देश, कुल और जातिसे विशुद्ध तथा विशुद्ध मन, वचन, कायसे संयुक्त हे आचार्य ! तुम्हारे चरणकमल मुझे इस लोकमें नित्य ही मंगलरूप हों । । १ । । सगपरसमयविदण्हू, आगमहेदूहिं चावि जाणित्ता । सुसमत्था जिणवयणे, विणये सत्ताणुरूवेण ॥ २ ॥
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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