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________________ ३६८ ___ कुंदकुंद-भारती पुंवेदं वेदंता, जे पुरिसा खवगसेढिमारूढा। सेसोदयेण वि तहा, झाणुवजुत्ता य ते हु सिझंति ।।६।। जो पुरुष भावपुरुष वेदका अनुभव करते हुए क्षपक श्रेणिपर आरूढ़ हुए अथवा भावस्त्री अथवा भावनपुंसक वेदके उदयसे क्षपक श्रेणिपर आरूढ़ हुए वे शुक्लध्यानमें तल्लीन होते हुए सिद्ध अवस्थाको प्राप्त होते हैं।।६।। पत्तेयसयंबुद्धा, बोहियबुद्धा य होंति ते सिद्धा। पत्तेयं पत्तेयं, समयं समयं पडिवदामि सदा।।७।। जो प्रत्येकबुद्ध, स्वयंबुद्ध अथवा बोधितबुद्ध होकर सिद्ध होते हैं उन सबको पृथक् पृथक् अथवा एक साथ मैं सदा नमस्कार करता हूँ। भावार्थ -- जो वैराग्यका कोई कारण देखकर विरक्त होते हैं वे प्रत्येकबुद्ध कहलाते हैं। जो किसी कारणके बिना देखे ही स्वयं विरक्त होते हैं वे स्वयंबुद्ध कहलाते हैं और भोगोंमें आसक्त रहनेवाले जो मनुष्य दूसरोंके द्वारा समझाये जानेपर विरक्त होते हैं वे बोधितबुद्ध कहलाते हैं।।७।। पण णव दु अट्ठवीसा, चउ तियणवदि य दोण्णि पंचेव। वावण्णहीणविसया, पयडि विणासेण होंति ते सिद्धा।।८।। पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, तिरानवे, दो और पाँच इस प्रकार क्रमसे ज्ञानावरणादि कर्मोंकी बावन कम दो सौ अर्थात् एकसौ अड़तालीस प्रकृतियोंके क्षयसे वे सिद्ध होते हैं।।८।। अइसयमव्वाबाहं, सोक्खमणंतं अणोवमं परमं। इंदियविसयातीदं, अप्पत्तं अच्चयं च ते पत्ता।।९।। वे सिद्ध भगवान् अतिशय, अव्याबाध, अनंत, अनुपम, उत्कृष्ट, इंद्रियविषयोंसे अतीत, अप्राप्त -- जो पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ था तथा स्थायी सुखको प्राप्त हुए हैं।।९।। लोगग्गमत्थयत्था, चरमसरीरेण ते हु किंचूणा। गयसित्थमूसगब्भे, जारिस आयार तारिसायारा।।१०।। वे सिद्ध भगवान् लोकाग्रके मस्तकपर विराजमान हैं, चरम शरीरसे किंचित् न्यून हैं तथा जिसके भीतरका मोम गल गया है ऐसे साँचेके भीतरी भागका जैसा आकार होता है वैसे आकारसे युक्त हैं।।१०।। जरमरणजम्मरहिया, ते सिद्धा मम सुभत्तिजुत्तस्स। दिंतु वरणाणलाहं, बुहयण परियत्थणं परमसुद्धं ।।११।। जरा, मरण और जन्मसे रहित वे सिद्ध भगवान् समीचीन भक्तिसे युक्त मुझ कुंदकुंदको बुधजनोंके
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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