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________________ ३५७ द्वादशानुप्रक्षा होती है और दूसरी निर्जरा व्रती जीवोंके होती है।।६७।। धर्मानुप्रेक्षा एयारसदसभेयं, धम्म सम्मत्तपुव्वयं भणियं। सागारणगाराणं, उत्तमसुहसंपजुत्तेहिं ।।६८।। उत्तम सुखसे संपन्न जिनेंद्र भगवान्ने कहा है कि गृहस्थों तथा मुनियोंका वह धर्म क्रमसे ग्यारह और दश भेदोंसे युक्त है तथा सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है। भावार्थ -- आत्माकी निर्मल परिणतिको धर्म कहते हैं। वह धर्म गृहस्थ और मुनिके भेदसे दो प्रकारका होता है। गृहस्थधर्मके दर्शन प्रतिमा आदि ग्यारह भेद हैं और मुनिधर्मके उत्तम क्षमा आदि दस भेद हैं। इन दोनों प्रकारके धर्मोंके पहले सम्यग्दर्शनका होना आवश्यक है, उसके बिना धर्मका प्रारंभ नहीं होता।।६८।। गृहस्थके ग्यारह धर्म दंसणवयसामाइयपोसहसच्चित्तरायभत्ते य। बम्हारंभपरिग्रह, अणुमणमुद्दिट्ट देसविरदेदे।।६९।। दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, रात्रिभक्तव्रत, ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग ये देशविरत अर्थात् गृहस्थके भेद हैं।।६९।। उत्तमखममद्दवज्जवसच्चसउच्चं च संजमं चेव। तवचागमकिंचण्हं, बम्हा इदि दसविहं होदि।।७०।। उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य ये मुनिधर्मके दश भेद हैं।।७० ।। उत्तम क्षमाका लक्षण कोहुप्पत्तिस्स पुणो, बहिरंगं जदि हवेदि सक्खादं। ण कुणदि किंचि वि कोहो, तस्स खमा होदि धम्मो त्ति।।७१।। यदि क्रोधकी उत्पत्तिका साक्षात् बहिरंग कारण हो फिर भी जो कुछ भी क्रोध नहीं करता उसके क्षमा धर्म होता है।।७१।। मार्दव धर्मका लक्षण कुलरूवजादिबुद्धिसु, तपसुदसीलेसु गारवं किंचि। जो ण वि कुव्वदि समणो, मद्दवधम्म हवे तस्स।।७२।। जो मुनि कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, श्रुत तथा शीलके विषयमें कुछ भी गर्व नहीं करता उसके
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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