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________________ ३५१ द्वादशानुप्रेक्षा मिथ्यात्वके उदयसे यह जीव जिनेंद्र भगवान्के द्वारा कथित धर्मकी निंदा करता हुआ तथा कुलिंग और कुतीर्थको मानता हुआ संसारमें भ्रमण करता है।।३२ ।। हंतूण जीवरासिं, महुमंसं सेविऊण सुरयाणं। __ परदव्यपरकलत्तं, गहिऊण य भमदि संसारे ।।३३।। जीवराशिका घात कर, मधु मांस और मदिराका सेवन कर तथा परद्रव्य और परस्त्रीको ग्रहण कर यह जीव संसारमें भ्रमण करता है।।३३।। जत्तेण कुणइ पावं, विसयणिमित्तं च अहणिसं जीवो। मोहंधयारसहियो, तेण दु परिपडदि संसारे।।३४।। मोहरूपी अंधकारसे सहित जीव विषयोंके निमित्त यत्नपूर्वक पाप करता है और उससे संसारमें पड़ता है।।३४।। णिच्चिदरधादुसत्तय, तरुदसवियलिदिएसु छच्चेव। सुरणिरयतिरियचउरो, चौद्दस मणुए सदसहस्सा।।३५।। नित्य निगोद, इतर निगोद, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक इन छह प्रकारके जीवोंमें प्रत्येककी सात सात लाख, प्रत्येक वनस्पतिकायिककी दस लाख, विकलेंद्रियोंकी छह लाख, देव, नारकी तथा पंचेंद्रिय तिर्यंचोंमें प्रत्येककी चार-चार लाख और मनुष्योंकी चौदह लाख इस प्रकार सब मिलाकर चौरासी लाख योनियाँ हैं। इनमें संसारी जीव भ्रमण करता है।।३५ ।। संजोगविप्पजोगं, लाहालाहं सुहं च दुक्खं च। संसारे भूदाणं, होदि हु माणं तहावमाणं च।।३६।। संसारमें जीवोंको संयोग वियोग, लाभ अलाभ, सुख दुःख तथा मान अपमान प्राप्त होते हैं। ।३६ ।। कम्मणिमित्तं जीवो, हिंडदि संसारघोरकांतारे। जीवस्स ण संसारो, णिच्चयणयकम्मविम्मुक्को।।३७।। कोंके निमित्तसे यह जीव संसाररूपी भयानक वनमें भ्रमण करता है, किंतु निश्चय नयसे जीव कर्मोंसे रहित है इसलिए उसका संसार भी नहीं है। भावार्थ -- जीवके संसारी और मुक्त भेद व्यवहार नयसे बनते हैं, निश्चय नयसे नहीं बनते, क्योंकि निश्चय नयसे जीव और कर्म दोनों भिन्न भिन्न द्रव्य हैं।।३७ ।। संसारमदिक्कंतो, जीवोवादेयमिति विचिंतेज्जो। संसारदुहक्कंतो, जीवो सो हेयमिति विचिंतेज्जो।।३८।।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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