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विसयकसाएहि जुदो, रुद्दो परमप्पभावरहियमणो ।
सोन लहइ सिद्धिसुहं, जिणमुद्दपरम्मुहो जीवो। ।४६ ।।
जो विषय और कषायोंसे युक्त है, जिसका मन परमात्माकी भावनासे रहित है तथा जो मुद्रा पराङ्मुख • भ्रष्ट हो चुका है ऐसा रुद्रपदधारी जीव सिद्धिसुखको प्राप्त नहीं होता ।। ४६ ।। जिणमुहं सिद्धिसुहं, हवेइ णियमेण जिणवरुद्दिट्ठा ।
सिवि वि ण रुच्च पुण, जीवा अच्छंति भवगहणे । । ४७ ।।
जिनेंद्र भगवान् के द्वारा कही हुई जिनमुद्रा सिद्धिसुखरूप है। जिन जीवोंको यह जिनमुद्रा स्वप्नमें भी नहीं रुचती वे संसाररूप वनमें रहते हैं अर्थात् कभी मुक्तिको प्राप्त नहीं होते ।। ४७ ।। परमप्पय झायंतो, जोई मुच्चेई मलदलोहेण ।
दिदिणवं कम्मं, णिद्दिट्ठे जिणवरिंदेहिं । । ४८ ।।
परमात्माका ध्यान करनेवाला योगी पापदायक लोभसे मुक्त हो जाता है और नवीन कर्मको नहीं ग्रहण करता ऐसा जिनेंद्र भगवान्ने कहा है ।। ४८ ।।
होऊण दिढचरित्तो, दिढसम्मत्तेण भावियमईओ ।
झायंतो अप्पाणं, परमपयं पावए जोई।। ४९ ।।
योगी -- ध्यानस्थ मुनि दृढ़ चारित्रका धारक तथा दृढ़ सम्यक्त्वसे वासित हृदय होकर आत्माका ध्यान करता हुआ परमपदको प्राप्त होता है ।। ४९ ।।
चरणं हवइ सम्मो, धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो ।
सो गरोसरहिओ, जीवस्स अणण्णपरिणामो । । ५० ।।
चारित्र आत्माका धर्म है अर्थात् चारित्र आत्माके धर्मको कहते हैं, धर्म आत्माका समभाव है अर्थात् आत्माके समभावको धर्म कहते हैं और समभाव राग द्वेषसे रहित जीवका अभिन्न परिणाम है अर्थात् राग द्वेषसे रहित जीवके अभिन्न परिणामको समभाव कहते हैं ।। ५० ।।
जह फलिहमणि विसुद्धो, परदव्वजुदो हवेइ अण्णं सो । तह रागादिविजुत्तो, जीवो हवदि हु अणण्णविहो । । ५१ । ।
जिस प्रकार स्फटिकमणि स्वभावसे विशुद्ध अर्थात् निर्मल है परंतु परद्रव्यसे संयुक्त होकर वह अन्यरूप हो जाता है उसी प्रकार यह जीव भी स्वभावसे विशुद्ध है अर्थात् वीतराग है परंतु रागादि विशिष्ट
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चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो सम्मो ति णिद्दिट्ठो । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ।।
• प्रवचनसारे