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अष्टपाहुड वह आत्मा परमात्मा, अभ्यंतरात्मा और बहिरात्माके भेदसे तीन प्रकारका है। इनमें से बहिरात्माको छोड़कर अंतरात्माके उपायसे परमात्माका ध्यान किया जाता है। हे योगिन्! तुम बहिरात्माका त्याग करो।।४ ।।
अक्खाणि बाहिरप्पा, अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्यो।
कम्मकलंकविमुक्को, परमप्पा भण्णए देवो।।५।। इंद्रियाँ बहिरात्मा हैं, आत्माका संकल्प अंतरात्मा है और कर्मरूपी कलंकसे रहित आत्मा परमात्मा कहलाता है। परमात्माकी देवसंज्ञा है।।५।।
मलरहिओ कलचत्तो, अणिंदिओ केवलो विसुद्धप्पा।
परमेट्ठी परमजिणो, सिवंकरो सासओ सिद्धो।।६।। वह परमात्मा मलरहित है, कला अर्थात् शरीरसे रहित है, अतींद्रिय है, केवल है, विशुद्धात्मा है, परमेष्ठी है, परमजिन है, शिवशंकर है, शाश्वत है और सिद्ध है।।६।।
आरुहवि अंतरप्पा, बहिरप्पा छंडिऊण तिविहेण।
झाइज्जइ परमप्पा, उवइटुं जिणवरिंदेहिं।।७।। ___ मन वचन काय इन तीन योगोंसे बहिरात्माको छोड़कर तथा अंतरात्मापर आरूढ़ होकर अर्थात् भेदज्ञानके द्वारा अंतरात्माका अवलंबन लेकर परमात्माका ध्यान किया जाता है, ऐसा जिनेंद्रदेवने कहा है।।७।।
बहिरत्थे फुरियमणो, इंदियदारेण णियसरूवचुओ।
णियदेहं अप्पाणं, अज्झवसदि मूढदिट्ठीओ।।८।। बाह्य पदार्थमें जिसका मन स्फुरित हो रहा है तथा इंद्रियरूप द्वारके द्वारा जो निजस्वरूपसे च्युत हो गया है ऐसा मूढदृष्टि -- बहिरात्मा पुरुष अपने शरीरको ही आत्मा समझता है।।८।।
णियदेहसरिस्सं पिच्छिऊण परविग्गहं पयत्तेण।
अच्चेयणं पि गहियं, झाइज्जइ 'परमभागेण।।९।। ज्ञानी मनुष्य निज शरीरके समान परशरीरको देखकर भेदज्ञानपूर्वक विचार करता है कि देखो, इसने अचेतन शरीरको भी प्रयत्नपूर्वक ग्रहण कर रक्खा है।।९।।
१ इस गाथाके पूर्व समस्त प्रतियोंमें तदुक्तं पाठ है, परंतु उसके आगे कोई गाथा उद्धृत नहीं है। ऐसा जान पड़ता है कि 'आरुहवि --' आदि गाथा ही उद्धृतगाथा है, क्योकि यह गाथा नं ४ की गाथार्थसे गत हो जाती है। संस्कृत टीकाकारने इसे मूल ग्रंथ समझकर इसकी टीका कर दी है। इसलिए यह मूलमें शामिल हो गयी है। यह गाथा कहाँकी है इसकी खोज आवश्यक है। २. मिच्छभावेण इति पुस्तकान्तरपाठः।