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अष्टा
हे मुनि! तू भावोंकी शुद्धिसे नव नोकषायोंके समूहको तथा मिथ्यात्वको छोड़ और जिनेंद्रदेवकी आज्ञानुसार चैत्य, प्रवचन एवं गुरुओंकी भक्ति कर।।९१।।
तित्थयरभासियत्थं, गणधरदेवेहिं गंथियं सम्म।
भावहि अणुदिणु अतुलं, विसुद्धभावेण सुयणाणं ।।१२।। जिसका अर्थ तीर्थंकर भगवान्के द्वारा कहा गया है तथा गणधरदेवने जिसकी सम्यक् प्रकारसे ग्रंथरचना की है, उस अनुपम श्रुतज्ञानका तू विशुद्ध भावनासे प्रतिदिन चिंतन कर।।९२।।
पाऊण णाणसलिलं, णिम्महतिसडाहसोसउम्मुक्का।
हंति सिवालयवासी, तिहुवणचूडामणी सिद्धा।।९३।। हे जीव! मुनिगण ज्ञानरूपी जल पीकर दुर्दम्य तृषारूपी प्यासकी दाह और शोषण क्रियासे रहित होकर मोक्षमहलमें निवास करनेवाले और तीन लोकके चूडामणि सिद्ध परमेष्ठी होते हैं ।।९३ ।।
दस दस दो सुपरीसह, सहदि मुणी सयलकाल काएण।
सुत्तेण अप्पमत्तो, संजमघादं पमुत्तूण।।९४ ।। हे मुनि! तू जिनागमके अनुसार प्रमादरहित होकर तथा संयमके घातको छोड़कर शरीरसे सदा बाईस परीषहोंको सह।।९४ ।।
जह पत्थरो ण भिज्जइ, परिडिओ दीहकालमुदएण।
तह साहू वि ण भिज्जइ, उवसग्गपरीसहेहिंतो।।९५ ।। जिस प्रकार पत्थर दीर्घकालतक पानीमें स्थित रहकर भी खंडित नहीं होता है उसी प्रकार उपसर्ग और परिषहोंसे साधु भी खंडित नहीं होता -- विचलित नहीं होता।।९५ ।।
भावहि अणुवेक्खाओ, अवरे पणवीसभावणा भावि।
भावरहिएण किं पुण, बाहिरलिंगेण कायव्वं ।।९६।। हे मुनि! तू अनित्यत्वादि बारह अनुप्रेक्षाओं तथा पंच महाव्रतोंकी पच्चीस भावनाओंका चितवन कर। भावरहित बाह्यलिंगसे क्या काम सिद्ध होता है? ।।९६ ।।
सव्वविरओ वि भावहि, णव य पयत्थाई सत्त तच्चाई।
जीवसमासाई मुणी, चउदसगुणठाणणामाई।।९७।। हे मुनि! यद्यपि तू सर्वविरत है तो भी नौ पदार्थ, सात तत्त्व, चौदह जीवसमास और चौदह गुणस्थानोंका चिंतन कर।।९७ ।।
णवविहबंभं पयडहि, अब्बंभं दसविहं पमोत्तूण। मेहुणसण्णासत्तो, भमिओसि भवण्णवे भीमे।।१८।।