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पना
भावलिंगी मुनि विचार करता है कि मैं निर्ममत्व भावको प्राप्त होकर ममता बुद्धिको छोड़ता हूँ और आत्मा ही मेरा आलंबन है, इसलिए अन्य समस्त पदार्थों को छोड़ता हूँ।।५७ ।।
आदा खु मज्झ णाणे, आदा मे संवरे जोगे।
आदा पच्चक्खाणे, आदा मे संवरे जोगे।।५८।। निश्चयसे मेरे ज्ञानमें आत्मा है, दर्शन और चारित्रमें आत्मा है, प्रत्याख्यानमें आत्मा है, संवर और योगमें आत्मा है।।
एगो मे सस्सदो अप्पा, णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा।।५९।। नित्य तथा ज्ञान दर्शन लक्षणवाला एक आत्मा ही मेरा है, उसके सिवाय परद्रव्यके संयोगसे होनेवाले समस्त भाव बाह्य हैं-- मुझसे पृथक् हैं। ।५९।।
भावेह भावसुद्धं, अप्पा सुविसुद्धणिम्मलं चेव।
लहु चउगइ चइऊणं, जइ इच्छसि सासयं सुक्खं ।।६०।। हे भव्य जीवो! यदि तुम शीघ्र ही चतुर्गतिको छोड़कर अविनाशी सुखकी इच्छा करते हो तो शुद्ध भावोंके द्वारा अत्यंत पवित्र और निर्मल आत्माकी भावना करो।।६० ।।
जो जीवो भावंतो, जीवसहावं सुझावसंजुत्तो।
जो जरमरणविणासं, कुडइ फुडं लहइ णिव्वाणं ।।६१।। जो जीव अच्छे भावोंसे सहित होकर आत्माके स्वभावका चिंतन करता है वह जरामरणका विनाश करता है और निश्चय ही निर्वाणको प्राप्त होता है।।६१ ।।।
जीवो जिणपण्णत्तो, णाणसहाओ य चेयणासहिओ।
सो जीवो णायव्वो, कम्मक्खयकारणणिमित्तो।।६२।। जीव ज्ञानस्वभाववाला तथा चेतनासहित है ऐसा जिनेंद्र भगवान्ने कहा है। वह जीव ही कर्मक्षयका कारण जानना चाहिए।।६२।।
जेसिं जीवसहावो, णत्थि अभावो य सव्वहा तत्थ।
ते होंति भिण्णदेहा, सिद्धा वचिगोयरमतीदा।।६३।। जिसके मनमें जीवका सद्भाव है उसका सर्वथा अभाव नहीं है। वे शरीरसे भिन्न तथा वचनके विजयसे परे होते हैं।।६३।।
अरसमरूवमगंधं, अव्वत्तं चेयणागुणमसदं । जाणमलिंगग्गहणं, जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं।।६४ ।।