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________________ कुंदकुंद-भारती भावार्थ -- यद्यपि बाहुबली स्वामी शरीरादिसे विरक्त होकर आतापनसे विराजमान थे परंतु 'मैं भरतकी भूमिमें खड़ा हूँ' इस प्रकार सूक्ष्म मान विद्यमान रहनेसे केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सके थे। जब उनके हृदयसे उक्त प्रकारका मान दूर हो गया था तभी उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ था। इससे यह सिद्ध होता है कि अंतरंगकी उज्ज्वलताके बिना केवल बाह्य त्यागसे कुछ नहीं होता । । ४४ ।। पिंग णाय मुणी देहा हारादिचत्तवावारो । सवणत्तणं ण पत्तो, णियाणमत्तेण भवियणुव । । ४५ ।। २९२ भव्य जीवोंके द्वारा नमस्कृत मुनि ! शरीर तथा आहारका त्याग करनेवाले मधुपिंग नामक मुनि निदानमात्रसे श्रमणपनेको प्राप्त नहीं हुए थे । । ४५।। अण्णं च वसिट्ठमुणी, पत्तो दुक्खं णियाणदोसेण । सो णत्थि वासठाणो, जत्थ ण दुरुदुल्लिओ जीवो । ।४६ ।। और भी एक वशिष्ठ मुनि निदानमात्रसे दुःखको प्राप्त हुए थे। लोकमें वह निवासस्थान नहीं है जहाँ इस जीवने भ्रमण न किया हो । । ४६ ।। सो णत्थि तं परसो, चउरासीलक्खजोणिवासम्मि । भावविरओ वि सवणो, जत्थ ण दुरुदुल्लिओ जीवो ।। ४७ ।। हे जीव ! चौरासी लाख योनिके निवासमें वह एक भी प्रदेश नहीं है जहाँ अन्यकी बात जाने दो, भावरहित साधुने भ्रमण न किया हो ।। ४७ ।। भावेण होइ लिंगी, ण हु लिंगी होइ दव्वमित्तेण । तम्हा कुणिज्ज भावं, किं कीरइ दव्वलिंगेण ।। ४८ ।। मुनि भावसे ही जिनलिंगी होता है, द्रव्यमात्रसे जिनलिंगी नहीं होता। इसलिए भावलिंग ही धारण करो, द्रव्यलिंगसे क्या काम सिद्ध होता है ? ।।४८ ।। दंडयरं सयलं, डहिओ अब्भंतरेण दोसेण । जिणलिंगेण वि बाहू, पडिओ सो रउरवे णरये । । ४९।। बाहु मुनि जिनलिंगसे सहित होनेपर भी अंतरंगके दोषसे दंडक नामक समस्त नगरको जलाकर रौरव नामक नरकमें उत्पन्न हुआ था । । ४९ ।। अवरो वि दव्वसवणो, दंसणवरणाणचरणपब्भट्टो | वायत्तिणामो, अनंतसंसारिओ जाओ ।।५०।। और भी एक द्वैपायन नामक द्रव्यलिंगी श्रमण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे भ्रष्ट
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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