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कुंदकुंद-भारती भावरहिओ ण सिज्झइ, जइ वि तवं चरइ कोडिकोडीओ।
जम्मंतराइ बहुसो, लंबियहत्थो गलियवथो।।४।। भावरहित जीव यदि करोडों जन्मतक अनेक बार हाथ लटका कर तथा वस्त्रोंका त्याग कर तपश्चरण करे तो भी सिद्ध नहीं होता।।४।।
परिणामम्मि असुद्धे, गंथे मुंचेइ बाहिरे य जई।
बाहिरगंथच्चाओ, भावविहूणस्स किं कुणइ।।५।। यदि कोई यति भाव अशुद्ध रहते हुए बाह्य परिग्रहका त्याग करता है तो भावहीन यतिका वह बाह्य परिग्रहत्याग क्या कर सकता है? कुछ नहीं ।।५।।
जाणहि भावं पढम, किं ते लिंगेण भावरहिएण।
पंथिय शिवपुरिपंथं, जिणउवइटुं पयत्तेण।।६।। हे पथिक! तू सर्वप्रथम भावको ही जान । भावरहित वेषसे तुझे क्या प्रयोजन? भाव ही जिनेंद्रदेवके द्वारा प्रयत्नपूर्वक शिवपुरीका मार्ग बतलाया गया है।।६।।
भावरहिएण सपुरिस, अणाइकालं अणंतसंसारे।
गहिउज्झियाइं बहुसो, बाहिरणिग्गंथरूवाइं।।७।। हे सत्पुरुष! भावरहित तूने अनादिकालसे इस अनंत संसारमें बाह्य निग्रंथ रूप -- द्रव्यलिंग अनेक बार ग्रहण किये हैं और छोड़े हैं।।७।।
भीसणणरयगईए, तिरियगईए कुदेवमणुगईए।
पत्तोसि तिव्वदुक्खं, भावहि जिणभावणा जीव।।८।। हे जीव! तूने भयंकर नरकगतिमें, तिर्यंचगतिमें, नीच देव और नीच मनुष्यगतिमें तीव्र दुःख प्राप्त किये हैं, अत: तू जिनेंद्रप्रणीत भावनाका चितवन कर।।८।।
सत्तसु णरयावासे, दारुणभीसाइं असहणीयाई।
भुत्ताइं सुइरकालं, दुक्खाइं णिरंतरं सहियाई।।९।। हे जीव! तूने सात नरकावासोंमें बहुत कालतक अत्यंत भयानक और न सहनेयोग्य दुःख निरंतर भोगे तथा सहे हैं।।९।।
खणणुत्तालनवालणवेयणविच्छेयणाणिरोहं च।
पत्तोसि भावरहिओ, तिरियगईए चिरं कालं ।।१०।। हे जीव! भावरहित तूने तिर्यंचगतिमें चिरकालतक खोदा जाना, तपाया जाना, जलाया जाना,