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जिसका मूढभाव दूर हो गया है, जिसमें आठों कर्म नष्ट हो गये हैं, मिथ्यात्वभाव नष्ट हो गया है और जो सम्यग्दर्शनरूप गुणसे विशुद्ध है ऐसी जिनदीक्षा कही गयी है ।। ५२ ।।
जिणमग्गे पव्वज्जा, छहसंहणणेसु भणिय णिग्गंथा ।
भावंति भव्वपुरिसा, कम्मक्खयकारणे भणिया । । ५३ ।।
जिनमार्गमें जिनदीक्षा छहों संहननोंवालोंके लिए कही गयी है। यह दीक्षा कर्मक्षयका कारण बतायी गयी है। ऐसी दीक्षाकी भव्य पुरुष निरंतर भावना करते हैं । । ५३ ।।
तिलतुसमत्तणिमित्तं, समबाहिरगंथसंगहो णत्थि ।
पव्वज्ज हवइ एसा, जह भणिया सव्वदरसीहिं । । ५४ ।।
जिसमें तिलतुषमात्र बाह्य परिग्रहका संग्रह नहीं है ऐसी जिनदीक्षा सर्वज्ञदेवके द्वारा कही गयी है । । ५४ ।।
उवसग्गपरिसहसहा, णिज्जणदेसे हि णिच्च अत्थेहि ।
सिलकट्ठे भूमितले, सव्वे आरुहइ सव्वत्थ । । ५५ ।।
उपसर्ग और परिषहोंको सहन करनेवाले मुनि निरंतर निर्जन स्थानमें रहते हैं, वहाँ भी सर्वत्र शिला, काष्ठ वा भूमितलपर बैठते हैं । । ५५ ।।
पसुमहिलसंढसंगं, कुसीलसंगं ण कुणइ विकहाओ ।
सज्झायझाणजुत्ता, पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। ५६ ।।
जिसमें पशु स्त्री नपुंसक और कुशील मनुष्योंका संग नहीं किया जाता, विकथाएँ नहीं कही जातीं और सदा स्वाध्याय तथा ध्यानमें लीन रहा जाता है ऐसी जिनदीक्षा कही गयी है ।। ५६ ।। तववयगुणेहिं सुद्धा, संजमसम्मत्तगुणविसुद्धा य ।
सुद्धा गुणेहिं सुद्धा, पव्वज्जा एरिसा भणिया । । ५७ ।।
जो तप व्रत और उत्तर गुणोंसे शुद्ध है, संयम, सम्यक्त्व और मूलगुणोंसे विशुद्ध है तथा अन्य गुणोंसे शुद्ध है ऐसी जिनदीक्षा कही गयी है । । ५७।।
एवं आयत्तणगुणपज्जत्ता बहुविहसम्मत्ते ।
णिग्गंथे जिणमग्गे, संखेवेणं जहाखादं ।। ५८ ।।
इस प्रकार आत्मगुणोंसे परिपूर्ण जिनदीक्षा अत्यंत निर्मल सम्यक्त्वसहित, निष्परिग्रह जिनमार्गमें जैसी कही गयी है वैसी संक्षेपसे मैंने कही है ।। ५८ ।।
रूवत्थं सुद्धत्थं, जिणमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं । भव्वजणबोहणत्थं, छक्कायहिदंकरं उत्तं । । ५९।।