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कुदकुद-भारता और मनके परिणामसे रहित होता है ऐसा जानना चाहिए।।३९ ।।
सम्मइंसणि पस्सइ, जाणदि णाणेण दव्वपज्जाया।
सम्मत्तगुणविसुद्धो, भावो अरहस्स णायव्वो।।४०।। __ अरहंत परमेष्ठी अपने समीचीन दर्शनगुणके द्वारा समस्त द्रव्यपर्यायोंको सामान्य रूपसे देखते हैं और ज्ञानगुणके द्वारा विशेष रूपसे जानते हैं। वे सम्यग्दर्शनरूप गुणसे अत्यंत निर्मल रहते हैं। इस प्रकार अरहंतका भाव जानना चाहिए।
सुण्णहरे तरुहितु, उज्जाणे तह मसाणवासे वा। गिरिगुह गिरिसिहरे वा, भीमवणे अहव वसिदो वा।।४१।। सवसासत्त तित्थं, वचचइदालत्तयं च वुत्तेहिं। जिणभवणं अह वेझं, जिणमग्गे जिणवरा विंति।।४२।। पंचमहव्वयजुत्ता, पंचिंदियसंजया णिरावेक्खा।
सज्झायझाणजुत्ता, मुणिवरवसहा णिइच्छंति।।४३।। शून्यगृहमें, वृक्षके अधस्तलमें, उद्यानमें, श्मशानमें, पहाड़की गुफामें, पहाड़के शिखरपर, भयंकर वनमें अथवा वसतिकामें मुनिराज रहते हैं।
स्वाधीन मुनियोंके निवासरूप तीर्थ, उनके नामके अक्षररूप वचन, उनकी प्रतिमारूप चैत्य, प्रतिमाओंकी स्थापनाका आधाररूप आलय और कहे हुए आयतनादिके साथ जिनभवन -- अकृत्रिम जिनचैत्यालय आदिको जिनमार्गमें जिनेंद्रदेव मुनियोंके लिए वेद्य अर्थात् जाननेयोग्य पदार्थ कहते हैं। पाँच महाव्रतोंसे सहित, पाँच इंद्रियोंको जीतनेवाले, निःस्पृह तथा स्वाध्याय और ध्यानसे युक्त श्रेष्ठ मुनि उपर्युक्त स्थानोंको निश्चयमें चाहते हैं।।४१-४३।।
गिहगंथमोहमुक्का, बावीसपरीसहा जियकसाया।
पावारंभविमुक्का, पव्वज्जा एरिसा भणिया।।४४।। जो गृहनिवास तथा परिग्रहके मोहसे रहित है, जिसमें बाईस परिषह सहे जाते हैं, कषाय जीती जाती है और पापके आरंभसे रहित है ऐसी दीक्षा जिनेंद्रदेवने कही है।।४४ ।।
धणधण्णवत्थदाणं, हिरण्णसयणासणाइ छत्ताई।
कुद्दाणविरहरहिया, पव्वज्जा एरिसा भणिया।।४५।। जो धन धान्य वस्त्रादिके दान, सोना चांदी, शय्या, आसन तथा छत्र आदिके खोटे दानसे रहित है ऐसी दीक्षा कही गयी है।।४५।।