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कुदकुद-भारता
एए तिण्णिवि भावा, हवंति जीवस्स अक्खयामेया।
तिण्हं पि सोहणत्थे, जिणभणियं दुविह चारित्तं ।।४।। जीवके ये ज्ञानादिक तीनों भाव अक्षय तथा अमेय होते हैं। इन तीनोंकी शुद्धिके लिए जिनेंद्र भगवान्ने दो प्रकारका चारित्र कहा है।।४ ।।
जिणणाणदिट्ठिसुद्धं, पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं।
बिदियं संजमचरणं, जिणणाणसदेसियं तं पि।।५।। इनमें पहला सम्यक्त्वके आचरणरूप चारित्र है जो जिनेद्रभाषित ज्ञान और दर्शनसे शुद्ध है तथा दूसरा संयमके आचरणरूप चारित्र है वह भी जिनेंद्र भगवान्के ज्ञानसे उपदेशित तथा शुद्ध है।।५।।
एवं चिय णाऊण य, सव्वे मिच्छत्तदोससंकाइ।
परिहरि सम्मत्तमला, जिणभणिया तिविहजोएण।।६।। इस प्रकार जानकर जिनदेवसे कहे हुए मिथ्यात्वके उदयमें होनेवाले शंकादि दोषोंको तथा त्रिमूढ़ता आदि सम्यक्त्वके सब मलोंका मन वचन कायसे छोड़ो।।६।।
णिस्संकिय णिक्कंखिय, णिब्विदिगिंछा अमूढदिट्ठी य।
उवगृहण ठिदिकरणं, वच्छल्लपहावणा य ते अट्ठ।।७।। निःशंकित, नि:काक्षित, निर्विचिकित्सता, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यग्दर्शनके आठ अंग अथवा गुण हैं।।७।।
तं चेव गुणविसुद्धं, जिणसम्मत्तं सुमुक्खठाणाय।
जं चरइ णाणजुत्तं, पढमं सम्मत्तचारित्तं ।।८।। वही जिन भगवान्का श्रद्धान जब निःशंकित आदि गुणोंसे विशुद्ध तथा यथार्थ ज्ञानसे युक्त होता तब प्रथम सम्यक्त्वाचरण चारित्र कहलाता है। यह सम्यक्त्वाचरण चारित्र मोक्षप्राप्तिका साधन है।।८।।
सम्मत्तचरणसुद्धा, संजमचरणस्स जइ व सुपसिद्धा।
णाणी अमूढदिट्ठी, अचिरे पावंति णिव्वाणं ।।९।। जो सम्यक्त्वाचरण चारित्रसे शुद्ध है, ज्ञानी है और मूढ़तारहित है वे यदि संयमचरण चारित्रसे युक्त हों तो शीघ्र ही निर्वाणको प्राप्त होते हैं।।१०।।
सम्मत्तचरणभट्टा, संजमचरणं चरंति जे वि णरा।
अण्णाणणाणमूढा, तहवि ण पावंति णिव्वाणं ।।११।। जो मनुष्य सम्यक्त्वचरण चारित्रसे भ्रष्ट हैं किंतु संयमचरण चारित्रका आचरण करते हैं वे