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अष्टपाड
२६१ जो मनुष्य स्वयं सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट होकर अपने चरणोंमें सम्यग्दृष्टियोंको पाड़ते हैं अर्थात् सम्यग्दृष्टियोंसे अपने चरणोंमें नमस्कार कराते हैं वे लूले और गूंगे होते हैं तथा उन्हें रत्नत्रय अत्यंत दुर्लभ रहता है। यहाँ लूले और गूंगेसे तात्पर्य स्थावर जीवोंसे है क्योंकि यथार्थमें वे ही गतिरहित तथा शब्दहीन होते हैं।।१२।।
जे वि पडंति च तेसिं, जाणंता लज्जगारवभयेण।
तेसिं पिणत्थि बोही, पावं अणमोयमाणाणं।।१३।। जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य मिथ्यादृष्टियोंको जानते हुए भी लज्जा, गौरव और भयसे उनके चरणोंमें पड़ते हैं वे भी पापकी अनुमोदना करते हैं अतः उन्हें रत्नत्रयकी प्राप्ति नहीं होती।।१३।।
दुविहं पि गंथचायं, तीसुवि जोएसुसंजमो ठादि।
णाणम्मि करणसुद्धे, उब्भसणे दंसणं होई।।१४।। जहाँ अंतरंग और बहिरंगके भेदसे दोनों प्रकारके परिग्रहका त्याग होता है, मन वचन काय इन तीनों योगोंमें संयम स्थित रहता है, ज्ञान कृत, कारित, अनुमोदनासे शुद्ध रहता है और खड़े होकर भोजन किया जाता है वहाँ सम्यग्दर्शन होता है।।१४।। वाया जाणमा
सम्मत्तादो णाणं, णाणादो सव्वभाव उवलद्धी।
उवलद्धपयत्थे पुण, सेयासेयं वियाणेदि।।१५।। सम्यग्दर्शनसे सम्यग्ज्ञान होता है, सम्यग्ज्ञानसे समस्त पदार्थोंकी उपलब्धि होती है और समस्त पदार्थों की उपलब्धि होनेसे यह जीव सेव्य तथा असेव्यको -- कर्तव्य-अकर्तव्यको जानने लगता है।।१५।।
सेयासेयविदण्हू, उद्बुददुस्सील सीलवंतो वि।
सीलफलेणब्भुदयं, तत्तो पुण लहइ णिव्वाणं।।१६।। सेव्य और असेव्यको जाननेवाला पुरुष अपने मिथ्या स्वभावको नष्ट कर शीलवान् हो जाता है तथा शीलके फलस्वरूप स्वर्गादि अभ्युदयको पाकर फिर निर्वाणको प्राप्त हो जाता है।।१६।।
जिणवयणमोसहमिणं, विसयसुहविरेयणं अमिदभूयं ।
जरमरणवाहिहरणं, खयकरणं सव्वदक्खाणं।।१७।। यह जिनवचनरूपी औषधि विषयसुखको दूर करनेवाली है, अमृतरूप है, बुढ़ापा, मरण आदिकी पीडाको हरनेवाली है तथा समस्त दुःखोंका क्षय करनेवाली है।।१७।।
एगं जिणस्स रूवं, बीयं उक्किट्ठसावयाणं तु। अवरट्ठियाण तइयं, चउत्थ पुण लिंगदंसणं णत्थि।।१८।।