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________________ अष्टपाहुड २५९ अष्टपाहुड दर्शनपाहुड काउण णमुक्कारं, जिणवरवसहस्स वड्डमाणस्स। दसणमग्गं वोच्छामि, जहाकमं समासेण।।१।। मैं आद्य जिनेंद्र श्री ऋषभदेव तथा अंतिम जिनेंद्र श्री वर्द्धमान स्वामीको नमस्कार कर क्रमानुसार संक्षेपसे सम्यग्दर्शनके मार्गको कहूँगा।।१।। दंसणमूलो धम्मो, उपइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं। तं सोऊण सकण्णे, दंसणहीणो ण वंदिव्यो।।२।। श्री जिनेंद्र भगवान्ने शिष्योंके लिए दर्शनमूल धर्मका उपदेश दिया है इसलिए उसे अपने कानोंसे सुनो। जो सम्यग्दर्शनसे रहित है वह वंदना करनेयोग्य नहीं है।।२।। दंसणभट्टा भट्टा, दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं। सिझंति चरियभट्टा, दंसणभट्टा ण सिझंति ।।३।। जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हैं वे ही वास्तवमें भ्रष्ट हैं, क्योंकि सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट मनुष्यको मोक्ष प्राप्त नहीं होता। जो सम्यक्चारित्रसे भ्रष्ट हैं वे सिद्ध हो जाते हैं परंतु जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हैं वे सिद्ध नहीं हो सकते।।३।। सम्मत्तरयणभट्टा, जाणंता बहुविहाई सत्थाई। आराहणाविरहिया, भमंति तत्थेव तत्थेव।।४।। जो सम्यक्त्वरूपी रत्नसे भ्रष्ट हैं वे बहुत प्रकारके शास्त्रोंको जानते हुए भी आराधनाओंसे रहित होनेके कारण उसी संसारमें भ्रमण करते रहते हैं।।४।। सम्मत्तविरहियाणं, सुटु वि उग्गं तवं चरंताणं।' ण लहंति बोहिलाहं, अवि वाससहस्सकोडीहिं ।।५।। जो मनुष्य सम्यग्दर्शनसे रहित हैं वे भले ही करोड़ों वर्षोंतक उत्तमतापूर्वक कठिन तपश्चरण करें तो भी उन्हें रत्नत्रय प्राप्त नहीं होता है।।५।।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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